सोशल मीडिया पर स्क्रॉल करते वक़्त कई लोगों के हंसते-खिलखिलाते चेहरे सामने आ जाते हैं. आए दिन इन लोगों को मैं नए-नए लोगों के साथ फ़ोटो डालते देखती हूं. मैं अक़्सर हैरान रह जाती हूं कि दुनिया की इस भागमभाग के बीच, लोग इतना वक़्त कैसे निकाल पाते हैं? और कैसे ये लोग नए लोगों से बात करने में इतने सहज हो जाते हैं? मैं अपनी दुनिया पर एक नज़र डालती हूं, तो बेहद गिने चुने लोग ही नज़र आते हैं. मुझे महसूस होता है कि उम्र जैसे-जैसे बढ़ रही है, मेरी दुनिया सिमटती जा रही है.
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वैसे मुझे लगता है कि शायद मैं ही नहीं, हममें से बहुत सारे लोग ऐसा ही महसूस करते हैं.
बचपन में बहुत सारे दोस्तों के बीच होकर लगता था कि ज़्यादा दोस्त यानि ज़्यादा ख़ुशी,लेकिन वक़्त और उम्र के साथ इसके मायने भी बदल गए और थोड़े जटिल भी हो गए. मैं अपना कोई भी दिन पलट कर टटोल लूं तो सारे दिन एक से लगते हैं. घर से दूर, एक मेट्रो सिटी में होना और यहां अपनी जगह बनाने की कोशिश करना, ये भी एक जंग है.
10 घंटे ऑफ़िस और ज़िंदगी की आम ज़रूरतों को पूरा करते-करते ही दिन निकल जाते हैं. मैं ख़ुद से बात करने के लिए भी वक़्त नहीं निकाल पाती हूं. ऐसे में बहुत सारे लोगों के आसापास या साथ होना मुझे एक बेहद मुश्किल बात लगती है. एक बार आप जिस चीज़ को गंभीरता से सोचेंगे तो उसे नकार नहीं पाएंगे कि आप किसी शहर में बेहतर की तलाश में आए हैं.
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अगर हम अपने आसपास नज़र दौड़ा कर देखें, तो बहुत सारे लोग हैं तो… पार्टियां हैं, देर रात के डिनर्स हैं, कभी किसी कैफ़े की चाय है. लेकिन अगर ध्यान देंगे तो वे ज़्यादातर लोग आपके ऑफिस के ही हैं. उसी तरह वो भी ही सर्वाइवल की उसी जंग में हैं. दरअसल, ये सच है कि वो आपके प्रतिद्वंदी (कॉम्पिटीटर) हैं. आप शायद कभी भी उन पर आंख मूंद कर भरोसा नहीं कर पाते. ये एक ऐसी भावनात्मक स्थिति है जहां आपके पास दोस्त हैं भी, लेकिन आप जानते हैं कि आपके पास दोस्त नहीं हैं.
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कभी-कभी यही अहसास हमें लगातार एक अजीब से खालीपन से भरने लगता है. फिर इसमें सबसे अहम बात ये है कि इसी बीच हमारे बहुत सारे भरोसे टूटते हैं. हम लोगों को बदलते या छूटते देखते हैं और जीवन के इस पूरे दौर से गुज़रते हुए हम अपने प्रति ज़्यादा संवेदनशील हो जाते हैं. लोगों को लेकर थोड़े ज़्यादा ही सतर्क और कई बार सख़्त भी हो जाते हैं.
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इस पूरी परस्थिति में एक महत्वपूर्ण बात ये भी है कि हमारे इस समय को देखिये. इंटरनेट के सहारे जी रही इस दुनिया में इन्फ़ोर्मेशन का फ़्लो इतना ज़्यादा है कि हर इंसान हज़ारों चीजें पढ़ रहा है. उसके बारे में अपनी समझ बना या विकसित कर रहा है. हम सब अपने जीवन, अधिकारों या राजनीति के बारे में लगातार बात कर रहे हैं. हम बातचीत में अपने लोगों के बीच लगातार कॉन्फ्ल्क्टि (विरोध) का सामना कर रहे होते हैं. हम ज़्यादातर उसे ख़त्म या कम करने की कोशिश करते हैं. लेकिन ये बेहद मुश्किल है. कई बार ये टकराव इतने ज़्यादा और इतने पेचीदा हो जाते हैं कि दोस्ती या रिश्ते ख़त्म करना ही अकेला रास्ता दिखता है.
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अब एक नज़र आप बाज़ार पर डालिए. ज़्यादातर शहरों में लोग अपने आप में सिमट रहे हैं. बाज़ार ने भी इसका भरपूर फ़ायदा उठाया है. आप घर बैठे ग्रॉसरी, खाना ऑर्डर कर सकते हैं. आपको बाज़ार जाकर शॉपिंग करने की भी ज़रूरत महसूस नहीं होती. आप बहुत सारी चीजें देखना और पढ़ना चाहते हैं. इसके लिए भी आपके पास ढेरों विकल्प मौजूद हैं. आप बस एक सब्सक्रिब्शन पर दिन-रात स्क्रीन पर बिता सकते हैं. ट्रेंड से बाहर हो जाने का डर भी तो हम सबके सामने हर समय होता है.
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ये तो कुछ गिनी चुनी बातें हैं. ऐसी और भी हज़ारों बातें हैं जो आपकी दुनिया को समेट रही हैं. और हमने उन कारणों की तरफ़ देखना शुरू भी नहीं किया है.
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