‘सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा, हमारा…’


बस में सफ़ेद कुर्ता पहना एक पैसेंजर, अपने चाइनीज़ फ़ोन पर में ज़ोर-ज़ोर से राष्ट्रभक्ति के गाने बजा रहा था. वैसे तो फ़ोन की आवाज़ कानफाड़ू थी पर क्योंकि देशभक्ति की बात थी, तो असुविधा होने पर भी सभी मौन साधे बैठे थे. बस और दिनों के मुक़ाबले ज़रा खाली थी, पर सभी सीटों पर यात्री थे. किसी ने अपनी कमीज़ पर तिरंगे वाला बैज लगा रखा था, तो किसी ने केसरिया, श्वेत और हरे रंग के कॉम्बो वाला सूट, तिरंगे वाले रबर बैंड के साथ पहना था. कुछ बच्चे भी थे जिनके हाथों में प्लास्टिक के झंडे और आंखों में मिठाई मिलने की चमक थी. 

बस दिल्ली के राजघाट के पास वाले स्टॉप पर पहुंची. पीछे के दरवाज़े से खादी की चादर, घुटने तक धोती, ऐनक और छड़ी लिए एक बूढ़ा चढ़ा. कंडक्टर ने बोला ‘रे ताऊ, तू गांधी बना है? सही लग रहा है भैंचो’. 

‘भाई, मैं गांधी ही हूं. 1 दिन की छुट्टी लेकर स्वतंत्रता दिवस मनाने आया हूं’.     

तभी एक दूसरे पैसेंजर ने कहा, ‘हां हां… तू गांधी है तो मैं मोदी हूं… ही ही ही’.


पूरी बस ठहाके लगाने लगी. बस की एक भी सीट खाली नहीं थी. बस में चढ़ी ये नयी सवारी, बस के बीचों-बीच आ कर खड़ी हो गयी. 

‘सारे जहां से अच्छा’ गाना ख़त्म हुआ और अचानक फटे स्पीकर वाले फ़ोन पर बजने लगा, 

‘तेरी आंख्या का यो काजल…’ 

कंडक्टर चीख पड़ा, ‘भाई आज के दिन तो देशभक्ति टाइप बजण दे.’ पैसेंजर ने गाना बदल दिया और ‘वैष्णव जन तो…’. 

गांधी जी के चेहरे पर ‘ये तो मेरा वाला गाना है’ टाइप हल्की सी मुस्कान दौड़ गई. गांधी जी भी गाने लगे. गांधी जी को गाता देख बगल की सीट पर बैठी दो महिलाएं मुंह पर हाथ रखकर हंसने लगीं.      

गांधी जी संभले ही थे कि ड्राइवर ने अचानक ब्रेक लगाई और वे गिरते-गिरते बचे. लाठी छूट गई, चादर भी अस्त-व्यस्त सी हो गयी.


किसी ने आवाज़ लगाई, ‘ठीक से खड़ा तो हो जा भाई, वरना एक पसली में घर जाएगा… हो हो हो.’ 

कंडक्टर, एक के बाद एक स्टॉप के नाम ले रहा था. गांधी जी कंडक्टर के पास पहुंचे और पूछा, 

‘भाई, ये दिल्ली में स्वतंत्रता दिवस सबसे अच्छे से कहां मनाया जाता है?’ 

‘शहर में नया है के?’      

‘नहीं भाई, नया तो नहीं हूं. हां पर कई सालों बाद वापस आया हूं. बहुत कुछ बदल गया है इधर तो, इतनी बड़ी-बड़ी इमारतें, पक्की सड़कें. देश काफ़ी तरक्की करने लगा है न भाई? अब तो ग़रीबी, भुखमरी जैसा कुछ भी नहीं होगा?’ 

‘हा…हा…हा… तू अपने रोल की परैक्टिस कर रहा है न? सही में भाई, जबर किया तूने. एक बार को तो मन्ने भी धोक्का हो गया. अच्छा सुन, लाल किला में होती है जबर परेड. ये बस लाल किला नहीं जा रही, तू उससे पहले उतर जाना.’  

गांधी जी सोच में पड़ गए कि एक वाजिब से सवाल का ऐसा जवाब… पर कुछ नहीं बोले और बस इतना कहा,


‘ठीक है भाई, स्टॉप आने पर बता देना.’

बापू पीछे को जाने लगे तो कंडक्टर ने कंधे पर हाथ रख कर पूछा, ‘ रे आया है तो पैसे तो देत्ता जा.’ 

‘पैसे तो हैं नहीं.’ 

‘के बोल रहा है? बिन पैसे के बस में चढ़ गया? के सोच रहा था तू? भीख मिल रही इधर. उतर भूतनी के. न जाने कहां कहां से आ जाते हैं.’    

बापू को लगभग धक्का देते हुए बस से उतार दिया गया. अपनी ऐनक संभालते हुए, बापू की नज़र एक दीवार पर पड़ी, जहां उनकी ऐनक का पोस्टर चिपका हुआ था. इससे पहले वो पढ़ पाते, एक महाशय आये और उस पर फ़ारिक होकर चले गए. दिल्ली काफ़ी बदल चुकी थी, 30 जनवरी 1948 से अब तक. जोड़ों में दर्द तो हो रहा था, पर अपनी लंबी पदयात्राएं याद करके बापू पैदल ही दिल्ली भ्रमण और स्वतंत्रता दिवस का कार्यक्रम देखने निकल पड़े.  

थोड़ी दूर चले कि एक यंगस्टर्स का ग्रुप मिला, बापू ने सोचा ये लोग उनसे बात-चीत करेंगे. बापू ने आवाज़ लगाई, ‘कैसे हो बच्चों?’


एक लड़के ने अजीब सी अंग्रेज़ी में कहा, 
‘हे लुक, डेट गाय इज़ ड्रेस्ड अप लाइक… लाइक… आई नो डेट…’ 

उसको अटकता देख, एक लड़की ने बात आगे बढ़ाई, 
‘महात्मा गांधी, फ़ादर ऑफ़ द नेशन, यू डम्म ऐस.’      

सभी बापू के पास पहुंचे और लगभग बापू को खींचते हुए कहा, ‘हे मैन, लेट्स टेक अ सेल्फ़ी.’ 

कई मोबाईल से अचानक क्लिक-क्लिक की आवाज़ें आने लगीं. इससे पहले बापू कुछ समझ पाते, एक लड़की ने बापू से उनकी छड़ी मांगी या यूं कहें ले ली. एक लड़के ने ‘नाइस ग्लासेस, मैन’ कह कर उनका चश्मा उतार दिया और ख़ुद पहन कर, तस्वीरें निकालने लगा. बापू संभले ही थे कि एक लड़की उनकी चादर को छू-छूकर पूछने लगी, ‘व्हाट इज़ दिस फ़ैब्रिक?’ 

बापू की चादर उनके तन से उघड़ गई और उनकी छाती पर गोलियों के निशान दिख गए. अचानक ग्रुप के लड़के शांत हो गए… सबके तोते उड़ गए. बापू को ‘महात्मा गांधी’ बोलकर बुलाने वाली लड़की ने कहा, ‘आप तो आर्मी से हो, सर. दीज़ मार्क्स आर स्पीकिंग फ़ॉर देमसेल्व्स. किस वॉर में थे आप?’


‘द वॉर ऑफ़ इंडिपेंडेस…’   

ग्रुप में एक बार फिर सन्नाटा छा गया. लड़के-लड़कियों ने एक-दूसरे की तरफ़ देखा और आपसी सहमति से पहले तो बापू की चीज़ें लौटाई और फिर ज़ोरदार दौड़ लगा दी. बापू उन्हें आवाज़ देते रह गए, 
‘लाल किले का रास्ता…’  

‘अजीब बात है’, बापू ने सोचा, ‘लोग सिर उठा कर चलने की बजाये, झुकाते हुए ज़्यादा चलते हैं’. ये वो सोच ही रहे थे कि अचानक दोनों ओर से तेज़ गाड़ियां आने लगीं. उन्हें शायद ‘सड़क की बाईं ओर चलें’ वाला नियम नहीं पता था और वे सड़क के बीचों-बीच चल रहे थे. तेज़ी से आ रही गाड़ियों से बचने-बचाने की कोशिश में बापू सड़क पर ही गिर पड़े.


आगे जाकर एक कार रूकी और ड्राइवर उतरा. बापू को लगा कि शायद ये उन्हें लाल किले तक पहुंचा दे. 

‘भाई, लाल किले का रास्ता…’    

पता नहीं, गाड़ीवाले ने सुना या नहीं सुना, पर वो अंग्रेज़ी में बड़बड़ाया. बापू को भी ठीक से कुछ सुनाई नहीं दिया, ट्रैफ़िक का शोर ही इतना था. बाएं हाथ की बीच वाली ऊंगली दिखाकर वो आदमी आगे बढ़ा और अपनी कार भगा ले गया.

बापू धीरे-धीरे उठे, चादर सही की, ऐनक सीधा किया और सड़क के एक तरफ़ जाकर बैठ गए. दोपहर हो गई थी और धूप काफ़ी तेज़ थी. मन ही मन बापू ने सोचा कि 71 साल पहले तो अगस्त में इतनी गर्मी नहीं हुआ करती थी. सावन के महीने में ये हाल है, तो गर्मियों में क्या होता होगा!   

बापू सोच ही रहे थे कि लाल किले तक कैसे पहुंचा जाए कि स्कूटी से एक महिला आई और अपने काले बैग से कुछ निकाला और बापू की ओर बढ़ा दिया. अब तक के अनुभव से बापू को यही लगा कि आधी आबादी अंग्रेज़ी और आधी ही हिन्दी समझती है. कौन सी भाषा में बात की जाए बापू सोच ही रहे थे कि महिला ने कहा, ‘ले लीजिए… चेहरे से पता चल रहा है कि आपने कई दिनों से कुछ नहीं खाया है. अगर आपको सिर पर छत या नौकरी की ज़रूरत है तो ये रहा मेरा कार्ड. मैं फ़लाना NGO से हूं. आप जैसे निर्धन, बेसहारा लोगों की मदद करना ही मेरा काम है.’  

बापू ने कहा, ‘धन्यवाद बेटी पर मैं न तो ग़रीब हूं, न ही बेसहारा. मैं तो इस दुनिया का ही नहीं हूं, एक दिन की छुट्टी लेकर लाल किले की परेड देखने आया हूं.’  


‘अच्छा तभी आप बापू बनकर घूम रहे हो. अंकल मुझे न ऑफ़िस पहुंचना है. मैं आपको लाल किला नहीं ले जा सकती. हां, पर आप इस पते पर आकर रजिस्ट्री करवा कर ‘गांधी आश्रम’ में रह सकते हो. ओके… सी यू.’ 

‘बेटी, लाल किले का रास्ता…’   

धुंआ छोड़ती हुई दुपहिया बापू को खांसते और छींकते हुए छोड़ गई. बापू ने अपनी कमर में टंगी घड़ी निकाली, दोपहर के 1 बज रहे थे. बापू ने सोचा देश और दुनिया में न जाने कहां-कहां घूम चुका हूं, न जाने कितने ही पैदल मार्च निकाले, तो क्या लाल किला नहीं जा सकता. ख़ुद ही रास्ता ढूंढ लूंगा.  

बापू थोड़ा आगे बढ़े ही थे कि उन्हें लाल किला किस तरफ़ है, ये एक बड़ी सी हरी पट्टी पर लिखा दिखा. बापू उसी दिशा में आगे बढ़ने लगे कि उनसे एक पतंग आकर लिपट गई, जिसके मांझे में काफ़ी धार थी. बापू कई जगह से लहुलुहान हो गए. कुछ छोटे बच्चे चीख रहे थे, ‘भाग बे, बुड्ढे को लग गई, भाग जल्दी…’  

बापू ने यूं तो कई दफ़ा लाठियां खाई थी, कई बार जेल भी गए थे, पर इस घटना से थोड़े आहत हुए. सोच में पड़ गए कि जिस भविष्य के लिए उन्होंने और उनके साथियों ने अपना ‘आज’ दे दिया, उसमें से कोई भी उन्हें ‘लाल किले का रास्ता…’ नहीं बता पाया. बापू ने सोचा कि क्या आज़ादी वाला परेड मैं कभी नहीं देख पाऊंगा, जैसे कि आज़ादी का पूरा-पूरा एक साल भी नहीं देख पाया था.


दुखी होकर उन्होंने आंखें बंद की और दो बार कहा, ‘हे राम, हे राम…’   

Cool Illustrations by- Muskaan