भारतीय इतिहास में वैसे तो कई महत्त्वपूर्ण युद्ध हुए हैं, लेकिन एक युद्ध ऐसा भी था जो साख के लिए लड़ा गया था. 16 मार्च, 1527 को राजपूत नरेश राणा सांगा और मुग़ल बादशाह बाबर के मध्य ‘खानवा का युद्ध’ लड़ा गया था. इस युद्ध में राणा सांगा की हार के साथ ही उनका सम्पूर्ण भारत में हिन्दू राज्य की स्थापना का सपना टूट गया था.
‘खानवा का युद्ध’ राजस्थान के भरतपुर के पास ‘खानवा’ नामक एक गांव में लड़ा गया था. इस लड़ाई से दिल्ली-आगरा में बाबर की स्थिति मज़बूत हो गई थी. आगरा से पहले बाबर ने ग्वालियर और धौलपुर के क़िलों को जीत कर अपनी स्थिति और भी मज़बूत कर ली थी. हालांकि, इस युद्ध के बारे में इतिहासकारों के अनेक मत हैं.
उत्तर भारत में दिल्ली सल्तनत के बाद सबसे शक्तिशाली शासक चित्तौड़ के राजा राणा सांगा थे. कहा जाता है कि राणा सांगा ही वो शख़्स थे जिन्होंने दो मुस्लिमों-इब्राहीम लोदी और बाबर के युद्ध में तटस्थता की नीति अपनायी थी. सांगा का विचार था कि अगर बाबर लूट-मार करके वापस चला जाये तो लोदी को शासन से हटाकर दिल्ली में हिन्दू राज्य की स्थापना की जा सकती है.
इस दौरान राणा सांगा को अहसास हो गया कि बाबर भारत में मुग़ल साम्राज्य की स्थापना न कर दे इसलिए उन्होंने बाबर के ख़िलाफ़ युद्ध की घोषणा कर दी. बाबर ताक़तवर शासक था, तो राणा सांगा भी वीर और कुशल सेनानी था. राणा सांगा ने अब तक अधिकांश युद्धों में विजय प्राप्त की थी. उधर बाबर भी समझ चुका था कि राणा सांगा के रहते हुए भारत में मुग़ल राज्य की स्थापना करना संभव नहीं हैं. इसलिए उसने भी अपनी सेना के साथ राणा से युद्ध करने का निश्चय कर लिया.
पानीपत के युद्ध से पूर्व बाबर और राणा सांगा में हुए समझौते के तहत इब्राहिम लोदी के ख़िलाफ़ सांगा को बाबर के सैन्य अभियान में सहायता करनी थी, लेकिन राणा सांगा बाद में मुकर गया क्योंकि वो बाबर को दिल्ली का बादशाह नहीं मानता था.
आख़िरकार 16 मार्च, 1527 को खानवा में बाबर और राणा सांगा के बीच युद्ध लड़ा गया. इस युद्ध में राणा सांगा का साथ मारवाड़, अम्बर, ग्वालियर, अजमेर, हसन ख़ान मेवाती, बसीन चंदेरी एवं इब्राहिम लोदी का भाई महमूद लोदी दे रहे थे.
राणा सांगा की एकजुटता से डर गया था बाबर
इस युद्ध से पहले राणा सांगा के संयुक्त मोर्चे की ख़बर से बाबर के सैनिकों का मनोबल गिरने लगा था. इसके बाद बाबर ने अपने सैनिकों के उत्साह को बढ़ाने के लिए शराब पीने और बेचने पर प्रतिबन्ध की घोषणा कर कर दी. इस दौरान उसने अपनी ताक़त बढ़ाने के लिए मुस्लिमों से ‘तमगा कर’ न लेने की घोषणा भी कर दी. तमगा एक प्रकार का व्यापारिक कर था, जिसे राज्य द्वारा लगाया जाता था. इस तरह ‘खानवा के युद्ध’ में भी पानीपत युद्ध की रणनीति का उपयोग करते हुए बाबर ने राणा सांगा के विरुद्ध एक सफ़ल युद्ध की रणनीति बनाई.
लोदी के सेनापति ने दिया राणा सांगा को धोखा
इस बीच बाबर 2 लाख मुग़ल सैनिकों के साथ राणा सांगा से युद्ध करने खानवा पहुंचा. इस दौरान उसने सांगा की सेना के लोदी सेनापति को प्रलोभन दिया तो, वो सांगा को धोखा देकर सेना सहित बाबर से जा मिला. इस बीच बाबर और सांगा की पहली मुठभेड़ बयाना में जबकि दूसरी उसके पास खानवा नामक स्थान पर हुई. राजपूतों ने पूरी वीरतापूर्वक युद्ध किया, लेकिन अंत में सांगा की हार हुई. इस विजय का सबसे बड़ा कारण बाबर के सैनिकों की वीरता नहीं, बल्कि उनका आधुनिक तोपख़ाना था.
‘खानवा के युद्ध’ में राणा सांगा बुरी तरह से घायल हो गए थे, लेकिन किसी तरह उनके सहयोगियों से उन्हें बचा लिया. कहा जाता है कि कुछ समय बाद राणा सांगा के किसी सामन्त ने उन्हें ज़हर देकर उनकी जान ले ली थी.
‘खानवा का युद्ध’ जीतने के बाद बाबर ने ‘ग़ाज़ी’ की उपाधि धारण की.इस जीत से दिल्ली-आगरा में बाबर की स्थिति सुदृढ़ हो गई. इसके बाद बाबर ने हसन ख़ान मेवाती से अलवर का बहुत बड़ा भाग भी छीन लिया. इसके बाद उसने मालवा स्थित चन्देरी के मेदिनी राय के विरुद्ध अभियान छेड़ा. इस दौरान राजपूत सैनिकों ने बाबर के ख़िलाफ़ ख़ून की अंतिम बूंद तक जंग लड़ी, लेकिन वफिर भी हार गए.
इसके बाद बाबर को इस क्षेत्र में अपने अभियान को सीमित करना पड़ा, क्योंकि उसे पूर्वी उत्तर प्रदेश में अफ़ग़ानों की हलचल की ख़बर मिली.