बौद्ध धर्म के गुरू अपने अनुयायियों को धर्म और नीति का उपदेश देने के लिए भगवान बुद्ध के पूर्व जन्म की कुछ कहानियां सुनाते हैं. इनके ज़रिये लोगों का मनोरंजन तो होता ही है, साथ ही उन्हें अच्छी शिक्षा भी मिलती है. इन्हें जातक कथाओं की संज्ञा दी गई है. इन कथाओं से मिलने वाली सीख आज के संदर्भ में भी सटीक बैठती हैं. चलिए ऐसी कुछ कहानियों पर एक नज़र डाल लेते हैं.
हमेशा संयम से काम लेने में ही भलाई है
हज़ारों साल पहले किसी वन में एक बुद्धिमान बंदर रहता था. वो हज़ार बंदरों का राजा भी था.
एक दिन वो और उसके साथी वन में कूदते-फांदते ऐसी जगह पर पहुंचे, जिसके निकट क्षेत्र में कहीं भी पानी नहीं था. नई जगह और नए परिवेश में प्यास से व्याकुल नन्हें वानरों के बच्चे और उनकी माताओं को तड़पते देख उसने अपने अनुचरों को तत्काल ही पानी के किसी स्रोत को ढूंढने की आज्ञा दी.
कुछ ही समय के बाद उन लोगों ने एक जलाशय ढूंढ निकाला. प्यासे बंदरों की जलाशय में कूद कर अपनी प्यास बुझाने की आतुरता को देख कर वानरराज ने उन्हें रुकने की चेतावनी दी, क्योंकि वे उस नये स्थान से अनभिज्ञ था. अत: उसने अपने अनुचरों के साथ जलाशय और उसके तटों का सूक्ष्म निरीक्षण व परीक्षण किया.
कुछ ही समय बाद उसने कुछ ऐसे पद चिन्हों को देखा, जो जलाशय को उन्मुख तो थे मगर जलाशय से बाहर को नहीं लौटे थे. बुद्धिमान वानर ने तत्काल ही यह निष्कर्ष निकाला कि उस जलाशय में निश्चय ही किसी ख़तरनाक दैत्य जैसे प्राणी का वास था. जलाशय में दैत्य-वास की सूचना पाकर सारे ही बंदर हताश हो गए.
तब बुद्धिमान वानर ने उनकी हिम्मत बंधाते हुए ये कहा कि वे दैत्य के जलाशय से फिर भी अपनी प्यास बुझा सकते हैं क्योंकि जलाशय के चारों ओर बेंत के जंगल थे जिन्हें तोड़कर वे उनकी नली से सुड़क-सुड़क कर पानी पी सकते थे. सारे बंदरों ने ऐसा ही किया और अपनी प्यास बुझा ली.
जो उपदेशक ख़ुद अपने को नियंत्रण में नहीं रख सकते, उनका हाल चिड़िया की तरह ही होता है
बहुत समय पहले की बात है. एक चिड़िया ज्यादातर ऐसे राजमार्ग पर रहती थी, जहां से अनाज से लदी गाड़ियां गुज़रती थीं.
चावल, मूंग, अरहर के दाने इधर-उधर बिखरे पड़े रहते. वह जी भरकर दाना चुगती. एक दिन उसने सोचा- मुझे कुछ ऐसी तरकीब करनी चाहिए कि अन्य पक्षी इस रास्ते पर न आएं वरना मुझे दाना कम पड़ने लगेगा.
उसने दूसरी चिड़ियों से कहना शुरू कर दिया- राजमार्ग पर मत जाना, वह बड़ा खतरनाक है. उधर से जंगली हाथी-घोड़े व मारने वाले बैलों वाली गाड़ियां निकलती हैं. वहां से जल्दी से उड़कर सुरक्षित स्थान पर पहुंचा भी नहीं जा सकता.
उसकी बात सुनकर पक्षी डर गए और उसका नाम अनुशासिका रख दिया.
एक दिन वह राजपथ पर चुग रही थी. जोर से आती गाड़ी का शब्द सुनकर उसने पीछे मुड़कर देखा- ‘अरे, अभी तो वह बहुत दूर है, थोड़ा और चुग लूं’, सोचकर दाना खाने में इतनी मग्न हो गई कि उसे पता ही नहीं लगा कि गाड़ी कब उसके नज़दीक आ गई. वह उड़ न सकी और पहिए के नीचे कुचल कर मर गई.
थोड़ी देर में खलबली मच गई- अनुशासिका कहां गई, अनुशासिका कहां गई? ढूंढते-ढूंढते वह मिल ही गई. अरे, यह तो मरी पड़ी है वह भी राजमार्ग पर! हमें तो यहां आने से रोकती थी और खुद दाना चुगने चली आती थी. सारे पक्षी कह उठे.
सत्यवादी और महात्माओं का साथ कभी नहीं छोड़ना चाहिए
श्रावस्ती के निकट जेतवन में कभी एक जलाशय हुआ करता था. उसमें एक विशाल मत्स्य का वास था. वह शीलवान, दयावान और शाकाहारी था.
उन्हीं दिनों सूखे के प्रकोप के उस जलाशय का जल सूखने लगा. फलत: वहां रहने वाले समस्त जीव-जन्तु त्राहि-त्राहि करने लगे. उस राज्य के फसलें सूख गई. मछलियां और कछुए कीचड़ में दबने लगे और सहज ही अकाल-पीड़ित आदमी और पशु-पक्षियों के शिकार होने लगे.
अपने साथियों की दुर्दशा देख उस महान मत्स्य की करुणा मुखर हो उठी. उसने तत्काल ही वर्षा देव पर्जुन का आह्मवान् अपनी सच्छकिरिया’ के द्वारा किया. पर्जुन से उसने कहा, “हे पर्जुन अगर मेरा व्रत और मेरे कर्म सत्य-संगत रहे हैं तो कृपया बारिश करें.” उसकी सच्छकिरिया अचूक सिद्ध हुई. वर्षा देव ने उसके आह्मवान् को स्वीकारा और सादर तत्काल भारी बारिश करवाई.
इस प्रकार उस महान और सत्यव्रती मत्स्य के प्रभाव से उस जलाशय के अनेक प्राणियों के प्राण बच गए.
कुछ भी कहने से पहले सोच लेना चाहिए
वर्षों पहले एक समुद्र में एक नर और एक मादा कौवा मदमस्त हो कर जल-क्रीड़ा कर रहे थे. तभी समुद्र की एक लौटती लहर में कौवी बह गई, जिसे समुद्र की किसी मछली ने निगल लिया. नर कौवे को इससे बहुत दु:ख हुआ. वह चिल्ला-चिल्ला कर विलाप करने लगा.
पल भर में सैकड़ों कौवे भी वहां आ पहुंचे. जब अन्य कौवों ने उस दु:खद घटना को सुना तो वे भी जोर-जोर से कांव-कांव करने लगे.
तभी उन कौवों में एक ने कहा कि कौवे ऐसा विलाप क्यों करे ; वे तो समुद्र से भी ज्यादा शक्तिशाली हैं. क्यों न वे अपनी चोंच से समुद्र के पानी को उठा कर दूर फेंक दें.
सारे कौवों ने इस बात को समुचित जाना और अपनी-अपनी चोंचों के समुद्र का पानी भर दूर तट पर छोड़ने लगे. साथ ही वे कौवी की प्रशंसा भी करते जाते.
एक कहता,” कौवी कितनी सुंदर थी.”
दूसरा कहता, “कौवी की आवाज़ कितनी मीठी थी.”
तीसरा कहता, “समुद्र की हिम्मत कैसे हुई कि वह उसे बहा ले जाय”.
फिर कोई कहता, “हम लोग समुद्र को सबक सिखला कर ही रहेंगे.”
कौवों की बकवास समुद्र-देव को बिल्कुल रास न आई और उसने एक शक्तिशाली लहर में सभी कौवों को बहा दिया.
गुणों की सर्वत्र पूजा होती है
एक बार किसी ने दो तोते-भाइयों को पकड़ कर एक राजा को भेंट में दिया. तोतों के गुण और वर्ण से प्रसन्न हो राजा ने उन्हें सोने के पिंजरे में रखा, उनका यथोचित सत्कार करवाया और प्रतिदिन शहद और भुने मक्के का भोजन करवाता रहा. उन तोतों में बड़े का नाम राधा और छोटे का नाम पोट्ठपाद था.
एक दिन एक वनवासी राजा को एक काले, भयानक बड़े-बड़े हाथों वाला एक लंगूर भेंट में दे गया. गिबन प्रजाति का वह लंगूर सामान्यत: एक दुर्लभ प्राणी था. इसलिए लोग उस विचित्र प्राणी को देखने को टूट पड़ते. लंगूर के आगमन से तोतों के प्रति लोगों का आकर्षण कम होता गया और उनके सरकार का भी.
लोगों के बदलते रुख से खिन्न हो पोट्ठपाद खुद को अपमानित महसूस करने लगा और रात में उसने अपने अपने मन की पीड़ा राधा को कह सुनाई. राधा ने अपने छोटे भाई को ढांढस बंधाते हुए समझाया,” भाई ! चिंतित न हो ! गुणों की सर्वत्र पूजा होती है. शीघ्र ही इस लंगूर के गुण दुनिया वालों के सामने प्रकट होंगे और तब लोग उससे विमुख हो जाएंगे.”
कुछ दिनों के बाद ऐसा ही हुआ जब नन्हें राजकुमार उस लंगूर से खेलना चाहते थे इस तो लंगूर ने अपना भयानक मुख फाड़, दांतें किटकिटा कर इतनी ज़ोर से डराया कि वे चीख-चीख कर रोने लगे. बच्चों के भय और रुदन की सूचना जब राजा के कानों पर पड़ी तो उसने तत्काल ही लंगूर को जंगल में छुड़वा दिया.
उस दिन के बाद से राधा और पोट्ठपाद की आवभगत फिर से पूर्ववत् होती रही.
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