इतिहास से हमें हमेशा कुछ न कुछ सीखने को ज़रूर मिलता है. इतिहास को हम जितना पढ़ने और समझने की कोशिश करते हैं, उतनी ही इसकी परतें खुलती जाती हैं. आज भी भारतीय स्वाधीनता आंदोलन की कई ऐसी कहानियां इतिहास में दर्ज हैं, जिनसे आज भी लोग अंजान हैं. इतिहास के पन्नों में खोई इन कहानियों के बारे में जानने के लिये वैज्ञानिकों व इतिहासकारों ने कई प्रयत्न किए लेकिन उन्हें कुछ ही कहानियों के सबूत मिल पाए, जबकि कई इतिहास के पन्नों में ही खोकर रह गईं. 

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आज हम आपको भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के दौरान हुए एक ऐसे आंदोलन के बारे में बताने जा रहे हैं जो इतिहास के पन्नों में कहीं खो गया है. इस आंदोलन का नाम ‘चपाती आंदोलन‘ था. अधिकतर लोग आज भी इस आंदोलन अंजान होंगे. 

सन 1857 में भारत का पहला स्वंतत्रता संग्राम लड़ा गया. कहा जाता है कि इसी दौरान ‘चपाती आंदोलन’ भी चलाया गया था. 

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आंदोलन का एकमात्र सबूत, वो ख़त! 

भारतीय इतिहासकारों द्वारा ‘1857 की क्रांति’ का एक व्यापक चित्रण किया था, लेकिन इतिहासकारों ने इस दौरान हुए ‘चपाती आंदोलन’ को तवज्जो नहीं दी. चपाती शब्द से ही आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि स्वाधीनता के लिए हमारे लोगों ने क्या-क्या नहीं सहा था. 

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दरअसल, इस आंदोलन का ज़िक्र पहली बार मार्च 1857 में ‘ईस्ट इंडिया कंपनी’ के सैन्य सर्जन डॉ. गिल्बर्ट हैडो ने किया था. उन्होंने भारत से ब्रिटेन अपनी बहन को एक ख़त लिखा, जिसमें उन्होंने ‘चपाती आंदोलन’ का ज़िक्र किया था. भारतीय इतिहास में यही ख़त ‘चपाती आंदोलन’ का एकमात्र सबूत है कि भारत में ऐसा भी कोई आंदोलन हुआ था. 

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हैडो के ख़त से जाहिर है कि ये कोई छोटी-मोटी घटना नहीं थी, बल्कि एक ऐसा आंदोलन था जिसने ब्रिटिश हुक़ूमत की नींद हराम कर दी थी. तभी तो हैडो ने इसे ज़रूरी समझा और इतना ज़रूरी कि अपनी बहन को ख़त लिखकर ख़बर दी. 

गिल्बर्ट ने अपने ख़त में लिखा कि, वर्तमान में पूरे भारत में एक रहस्यमय आंदोलन चल रहा है. वो क्या है इसके बारे में कोई नहीं जानता? उसके पीछे की वजहों को आज तक तलाशा नहीं गया है? ये कोई धार्मिक आंदोलन है या कोई गुप्त षड्यंत्र? इसके बारे में कोई कुछ नहीं जानता. कुछ पता है तो बस ये कि इसे ‘चपाती आंदोलन’ कहा जा रहा है’. 

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90 हजार पुलिसकर्मी हुए आंदोलन में शामिल 

इस आंदोलन के बारे में ये भी कहा जाता है कि इस पर पहली नज़र मथुरा के मजिस्ट्रेट मार्क थॉर्नहिल की पड़ी थी. जब एक रोज़ वो अपने घर से थाने पहुंचे तो उन्होंने अपनी टेबिल पर चपातियों से भरा एक बोरा देखा. इस पर उन्होंने जब एक भारतीय सिपाही से पूछा तो उसने बताया कि रात में कोई चपातियों से भरा ये बोरा देकर गया है. 

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मार्क इससे हैरान थे कि आख़िर चपातियों से भरा ये बोरा कौन देकर गया होगा? कुछ दिन बाद ख़बरें आने लगीं कि इस तरह के बोरे आस-पास के हर गांव व चौकियों में भी मिल रहे हैं. इसके बाद मार्क ने मामले को गंभीरता से लिया और इसकी जांच शुरू कर दी. इस दौरान मार्क को जांच में भारतीय सिपाहियों की मदद का कोई फ़ायदा नहीं मिल रहा था, क्योंकि वे स्वयं भी चपाती बनाने और बांटने में सहयोग कर रहे थे. एक अनुमान के अनुसार करीब 90 हज़ार से अधिक भारतीय पुलिसकर्मी एकजुट होकर चपातियों के बोरे एक गांव से दूसरे गांव पहुंचा रहे थे. 

इस तरह से मार्क की नाक के नीचे गांव-गांव चपाती पहुंचती रही. इस दौरान अंग्रेज़ों के हाथ कोई ख़ास सबूत तो नहीं लगे लेकिन जांच के दौरान उन्हें पता चला कि एक गांव में जो चपाती बनती है, वो एक ही रात में 300 किमी तक का सफ़र तय कर दूसरे गांव तक पहुंच जाती हैं. यानी चपाती पहुंचने की ये सुविधा उस दौर की ब्रिटिश मेल सुविधा से कहीं तेज़ थी. भारतीयों की ये चाल ब्रिटिश अधिकारियों के लिए सिर दर्द बनती जा रही थी. 

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कुछ समय बाद चपाती बांटने की ये मुहिम और भी तेज़ हो गयी. भारतीयों की ये मुहिम मध्य भारत से लेकर नर्मदा नदी के किनारे होते हुए नेपाल तक इसकी पहुंच बन चुकी थी. हालांकि, इस दौरान चपाती बांटने वाले भी इस रहस्य से अंजान थे कि आख़िर ये सब हो क्यों रहा है? गांव में बस एक अंजान आदमी आता और रोटियों का बोरा थमाकर चला जाता. संदेश होता कि और रोटियां बनाओ और दूसरे गांव पहुंचाओ. क्यों? इसका जवाब किसी के पास नहीं है. 

ब्रिटिश अधिकारियों को अपने किसी सवाल का जवाब नहीं मिल रहा था. अब कुछ था तो वो केवल अफ़वाहें. इस दौरान कयास लगाए जाने लगे कि रोटियों के ज़रिए कोई गुप्त संदेश पहुंचाया जा रहा है. शायद कोई बहरूपिया सीमा पार करने के लिए रोटियों की मदद ले रहा है या फिर कोई गुप्त आंदोलन की योजना बन रही है. हालांकि, ये केवल कयास ही निकले, सबूत नहीं मिले. 

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सन 1857 के विद्रोह से संबंधित कुछ दुर्लभ दस्तावेजों में लिखा है कि 5 मार्च 1857 तक चपाती अवध से रुहेलखंड और फिर दिल्ली समेत नेपाल तक पहुंच गई थी. ब्रिटिश अधिकारियों को जब कुछ नहीं सूझा तो उन्होंने आंदोलन को रोकने के लिए सरकारी नमक में गाय और सुअर के ख़ून के छीटे फेंकना शुरू कर दिया ताकि हिंदू-मुस्लिम इन्हें हाथ न लगा पाएं. अफ़वाह फैलाई गई कि आटे में सुअर का मांस मिलाकर बेचा जा रहा है. हालांकि, ब्रिटिश अधिकारियों की ये सारी कोशिशें नाकाम रहीं. 

गांव वाले अपने खेत के गेंहू से आटा पीसते और फिर चपाती बनाते और बांटते, ये क्रम निरंतर जारी रहा. कुछ ही समय में मध्य भारत, दिल्ली, उप्र, कलकत्ता, गुजरात तक चपाती की धमक पहुंच चुकी थी. ब्रिटिश तंत्र बुरी तरह हिला हुआ था, क्योंकि किसी को इस रहस्यमय आंदोलन का मकसद समझ नहीं आ रहा था. 

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देश के क्रांतिकारियों की ये छोटी सी मुहिम भी ब्रिटिश हुक़ूमत की नींद उड़ाने के लिए काफ़ी थी. इसके परिणाम स्वरुप ही 10 मई 1857 को मेरठ से ब्रिटिश राज के ख़िलाफ़ पहला सशस्त्र विद्रोह फूटा था.

इस आंदोलन के बारे में एक कहावत ये भी है कि जिस वक़्त मध्य भारत में ‘कोलेरा’ यानी हैजा नामक बीमारी का प्रकोप फैला था. उस दौरान इस बीमारी से पीड़ित परिवारों को मदद पहुंचाने के लिए ‘चपाती आंदोलन’ चलाया गया था. हालांकि, इतिहास के पन्नों में इस बात के सबूत भी नहीं मिलते हैं. 

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अंतत: ‘चपाती आंदोलन’ अंग्रेज़ों के लिए हमेशा के लिए एक रहस्य ही रहा. इससे दुःखद बात ये रही कि हमारे इतिहासकारों ने भी कभी इसे टटोलने की कोशिश ही नहीं की. 

अगर आप भी ‘चपाती आंदोलन’ के बारे में जानते हैं तो कमेंट बॉक्स में ज़रूर बताएं.