आए दिन मासूमों के साथ होने वाले रेप के मामले सामने आते हैं. कई बार ये बातें हंगामा खड़ा करती हैं, तो कई बार यूं ही दब जाती हैं. बहुत से मामलों तक लोगों का ध्यान ही नहीं जाता. हम सभी इन मुद्दों पर चर्चा करते हैं, लम्बे भाषण दे देते हैं, लेकिन एक मासूम बच्चा किस दर्द से गुजरता है, इसका अंदाज़ा कोई नहीं लगा सकता. ऐसे हादसों के द्वारा मासूमियत से भरा बचपन कुचल दिया जाता है और वो बच्चा एक टीस के साथ युवा होता है. क्या भारत का भविष्य ऐसे दर्द में जीने वाले बच्चों के हाथ में राहत की सांस ले सकेगा? अगर नहीं, तो हम क्यों बच्चों पर हो रहे इन अपराधों के बारे में गंभीर नहीं हो रहे?

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बच्चों के साथ बलात्कार की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक, भारत में पिछले 5 सालों में बच्चों से बलात्कार के मामलों में 151 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है. ये मामले वो हैं जिनमें लोगों ने शिकायत की और केस दर्ज हुआ. लेकिन उन मामलों का कोई आंकड़ा नहीं है, जिनमें मासूमों ने बलात्कार से जुड़ी मानसिक और शारीरिक प्रताड़ना को सहा और चुप रह गए या फिर उन्हें चुप करवा दिया गया.

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एनसीआरबी के आंकड़ों से साफ है कि देश के नौनिहालों की सुरक्षा की स्थिति चिंताजनक है. 2010 में दर्ज 5,484 बलात्कार के मामलों की संख्या बढ़कर 2014 में 13,766 हो गई है. संसद में पेश किए गए आंकड़ों के अनुसार, अक्टूबर 2014 तक पोक्सो के तहत दर्ज 6,816 एफ़आईआर में से सिर्फ़ 166 को ही सज़ा हो सकी है, जबकि 389 मामले में लोग बरी कर दिए गए, जो 2.4 प्रतिशत से भी कम है. इसी तरह 2014 तक 5 साल में दर्ज मामलों में 83% मामले लंबित थे, जिनमें से 95% पोक्सो के मामले थे और 88% ‘लाज भंग’ (बच्ची के साथ बलात्कार) करने के थे. एनसीआरबी के अनुसार भारतीय दंड संहिता की धारा 354 के तहत महिला की ‘लाज भंग’ के इरादे से किए गए हमले के 11,335 मामले दर्ज किए गए हैं.

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बच्चों के प्रति बढ़ रहे बलात्कार के ये मामले सबसे ज्यादा मध्य प्रदेश में दर्ज किए गए और उसके बाद महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, दिल्ली और राजस्थान वे राज्य हैं, जहां बच्चों के साथ सबसे ज्यादा बलात्कार के मामले दर्ज हुए, जबकि इनमें वे मामले शामिल नहीं हैं जिनकी शिकायत दर्ज करवाई ही नहीं गई. 

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विशेषज्ञों का मानना है कि पहले की तुलना में पिछले चार साल में बच्चों से बलात्कार के मामले बढ़ने के दो प्रमुख कारण हो सकते हैं, जिसमें एक यह है कि पहले लोग समाज के डर से मामले दर्ज नहीं करवाते थे और दूसरा कारण इस तरह के मामलों के लिए बने नए कानून हैं.

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लोग अब इस तरह के शोषण को लेकर कानून का रास्ता अपनाने लगे हैं. फिर भी ऐसी घटनाओं के बाद अफसोस और कानूनी कार्यवाही में असली मुद्दा पीछे रह जाता है कि आखिर बच्चों की सुरक्षा के लिए क्या किया जाना चाहिए, जो माता-पिता और स्कूल की साझी ज़िम्मेदारी है. साथ ही ज़रूरी है कि अभिभावक अपने बच्चों को इस तरह की परवरिश दें, जिससे वे ऐसी घटनाओं के प्रति जागरूक हो सकें और ‘अच्छे और बुरे स्पर्श’ में फ़र्क समझ सकें तथा इस तरह के किसी भी व्यवहार से जुड़े अपने मानसिक अनुभवों को परिवार से बता सकें.