ओडिशा के बलरामपुर गांव में रहने वाली 70 वर्षीय चतूरी साहू पिछले 40 सालों से पेड़ों की कटाई रोकने के लिए चिपको आंदोलन चला रही हैं. उनकी इस मुहिम के चलते आज इस गांव के जंगल सुरक्षित हैं. ये महिलाएं पिछले कुछ दशकों में हज़ारों पेड़ों को कटने से बचा चुकी हैं. इस गांव की महिलाओं का कहना है कि चाहे कुछ भी हो जाए हम किसी को भी अपने जंगलों को काटने की इज़ाज़त नहीं देंगे.
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70 वर्षीय चतूरी साहू पिछले कई सालों से लकड़ी के माफ़ियाओं से झींकरगाडी के जंगलों को बचाने के लिए दिन रात मुहिम चला रही हैं. इस मुहीम में उनके साथ गांव की सैकड़ों महिलाएं भी साथ दे रही हैं.
चतूरी कहती हैं कि ये जंगल हमारी ज़िंदगी हैं, हम पिछले कई सालों से शराब माफ़ियाओं से अपने इन जंगलों की रक्षा कर रहे हैं और आगे भी करते रहेंगे.
लकड़ी के माफ़ियाओं से अपने गांव के जंगलों को बचाने के लिए दिन के समय महिलाएं जबकि रात के समय पुरुष जंगलों की रक्षा करते हैं. इस मुहिम में चतुरी साहू को उनके पति और बेटे भी सहयोग करते हैं.
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70 वर्षीय पूना खूंटिया नाम की एक अन्य महिला के पास पेड़ों की रक्षा के लिए परिवार में कोई पुरुष नहीं है, बावजूद इसके वो ख़ुद इस मुहिम में हिस्सा लेती हैं. कोयले की खान में काम करने वाले उनके पति की कई साल पहले मौत हो चुकी है. पूना जब पेड़ों की निगरानी के लिए नहीं जा पाती हैं तो वो इसके लिए किसी पुरुष को पैसे देकर अपनी जिम्मेदारी निभाती हैं.
पूना कहती हैं कि, हम पिछले कई दशकों से इन पेड़ों की रक्षा कर रहे हैं ये हमारी ज़िन्दगी हैं. इन्हें हमसे कोई नहीं छीन सकता है सरकार भी नहीं.
जब कभी भी गांव में किसी शुभ कार्य, मकान बनाने, फ़र्नीचर बनाने और अंतिम संस्कार के लिए किसी सूखे पेड़ को काटा जाता है तो भी गांव के सभी लोगों से इस बारे में सलाह मशविरा के बाद ही पेड़ कटा जाता है.
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आख़िर बलरामपुर की इन महिलाओं के बीच पेड़ों के कटने का इतना डर क्यों है कि उन्हें 70 के दशक के प्रसिद्ध ‘चिपको आंदोलन’ का सहारा लेना पड़ रहा है.
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साल 2014 तक बलरामपुर के ग्रामीणों के लिए ये एक व्यवसाय की तरह था. एक परिवार से दो पुरुष हर दिन 600 एकड़ में फ़ैले झींकरगाडी के जंगलों में गश्त लगाते थे. ताकि कोई वन तस्कर या शिकारी आए तो साथी ग्रामीणों को सूचित कर सके. गांव का हर परिवार इस पारंपरिक दिनचर्या में शामिल रहते थे. जबकि कुछ साल पहले सरकार ने औद्योगिक परियोजनाओं के लिए Land Bank बनाने के लिए इस जगह को चुना है.
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बलरामपुर के ग्रामीणों द्वारा संरक्षित इस वन पैच को बाद में Odisha Industrial Infrastructure Development Corporation द्वारा संचालित किया जाने लगा. ये नोडल एजेंसी उद्योगों के लिए भूमि उपलब्ध करने का काम करती है. इसके कुछ समय बाद ढेंकनाल ज़िला प्रशासन ने भूमि वर्गीकरण को बदलने की प्रक्रिया शुरू की जिसका गांववालों ने विरोध किया.
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दरअसल, ग्रामीणों के बीच इस बात का डर था कि जिन जंगलों को उन्होंने इतने सालों से बचाकर रखा था उन्हें काट लिया जायेगा. इस पर प्रशासन का कहना था कि बलरामपुर गांव में Common land 5% की न्यूनतम आवश्यकता से अधिक है. इसलिए अतिरिक्त भूमि को अन्य उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल किया जायेगा.
ग्रामीणों ने पिछले साल अपनी नाराज़गी को लेकर ओडिशा हाई कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया था. ये मामला अभी कोर्ट में हैं.
26 मार्च, 1974 में हुई थी चिपको आंदोलन की शुरुआत
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दरअसल, चिपको आंदोलन की शुरुआत सबसे पहले उत्तराखंड के चमोली ज़िले में साल 1974 में हुई थी. जब इस ज़िले की महिलाओं ने पेड़ों की लगातार हो रही कटाई से परेशान होकर विरोध में ‘चिपको आन्दोलन’ चलाया था. इस दौरान हज़ारों ग्रामीणों ने जंगलों को बचाने के लिए पेड़ों पर चिपककर उसकी रक्षा की थी.