भारत वर्ष में जैसे-जैसे मुगलों का पतन होता जा रहा था, मध्यकाल भी अपने अंत की तरफ़ बढ़ रहा था. इस दौर में दुनिया में हो रहे विज्ञान के विकास के फलस्वरूप साहसिक समुद्री खोजों का चलन प्रारम्भ हो चुका था. दुनिया का एक छोर अब दूसरे छोर के नज़दीक आता जा रहा था. इन्हीं घटती दूरियों के परिणामस्वरूप यूरोपीय ओपनिवेशिक ताकतों का भारत में आगमन हुआ. पुर्तगाली, फ़्रांसिसी, ब्रिटिश, डच सभी धीरे-धीरे भारत में आये, लेकिन इनमें सबसे कामयाब रहे, ब्रिटिश.
व्यापारिक मकसद से भारत आने वाले अंग्रेज़ों ने तत्कालीन समय में देश के नेतृत्व को कमज़ोर मुगलों के हाथों में देख अपनी सामरिक और राजनैतिक शक्ति बढ़ानी शुरू कर दी. देखते-देखते पूरे देश में ब्रिटिश हुकूमत ने अपने पांव पसार दिए. 1757 में प्लासी और 1764 के बक्सर के युद्ध के बाद पूरी तरह से भारत अंग्रेज़ों के अधीन हो गया.
इसके बाद देश में अंग्रेज़ों की बढ़ती ताकत के साथ उनका देश की जनता पर ज़ुल्मों का भी सिलसिला बढ़ने लगा. इसके साथ ही समानान्तर रूप से देश में औद्योगिक विकास के फलस्वरूप मध्यम वर्ग का उदय हुआ.
इसमें पढ़े-लिखे लोगों का वर्चस्व था. अपनी वैचारिक समृद्धता की वजह से इन्होंने देश को अंग्रेज़ों से आज़ाद कराने का बीड़ा उठाया. जो आगे चलकर कांग्रेस नामक संगठन के रूप में सामने आया. इसके साथ ही कुछ पढ़े-लिखे युवा क्रांति के रास्ते पर चलकर आज़ादी मांग रहे थे. लेकिन इन दोनों धड़ों के बीच 1915 में देश के सामने ऐसा शख्स आता है, जिसने आज़ादी की लड़ाई की दिशा ही बदल दी. उसका नाम था, मोहनदास करमचन्द गांधी.
इस शख्स को रवीन्द्र नाथ टैगोर ने ‘महात्मा’ का नाम दिया. महात्मा गांधी ने आज़ादी की लड़ाई में अपने आंदोलनों से जान फूंक कर अपना कद बनाया. आज हम इन्हें देश को आज़ाद करवाने में दिए इनके योगदान की वजह से राष्ट्रपिता कह कर सम्बोधित करते हैं. गांधी का जीवन काफ़ी विस्तृत रहा. इस दौरान जितनी उन्हें प्रसिद्धी मिली, उसी तरह कई मुद्दों पर विवाद भी उनसे जुड़े रहे. आज हम गांधी के जीवन से जुड़े ऐसे ही मामले आपको बताते हैं.
1. चौरी-चौरा कांड के बाद असहयोग आन्दोलन को अचानक बीच में रोक देना
1920 में शुरू हुआ असहयोग आन्दोलन पूरे देश में जोर-शोर से चल रहा था. पहली बार अंग्रेज़ी हुकूमत को इस तरह से विरोध का सामना करना पड़ रहा था. पूरा हिंदुस्तान सड़कों पर उतर आया था. दिल्ली से लेकर ब्रिटेन तक अंग्रेज़ हुक्मरान हिल चुके थे. तभी उत्तर प्रदेश के चौरी-चौरा नामक स्थान पर गुस्साई भीड़ ने पुलिस थाने में आग लगा दी. इस घटना में 22 पुलिस वाले ज़िन्दा जल कर मर गये थे. गांधी जी ने इस घटना के तुरन्त बाद ही अपने चरम पर चल रहे असहयोग आन्दोलन को बीच में ही समाप्त कर दिया.
पूरा देश जिस समय एक सूत्र में बंधकर अंग्रेज़ी हुकूमत का विरोध कर रहा था, उस समय इस तरह आन्दोलन को बीच में खत्म करने की वजह से क्रांतिकारियों के साथ-साथ कांग्रेस के लोगों का भी गांधी जी को विरोध झेलना पड़ा.
2. गांधी-इरविन समझौते के दौरान भगत सिंह की फांसी रुकवाने की कोशिश न करना
तत्कालीन समय में देश में 23 साल के भगत सिंह की लोकप्रियता 62 साल के गांधी जी से किसी भी तरीके से कम नहीं थी. भगत सिंह उस समय देश के युवाओं के हीरो बन चुके थे. गांधी कभी नहीं चाहते थे कि हिंसा के रास्ते पर चलने वाले क्रांतिकारियों की ताकत बढ़े. इस मामले में गांधी और अंग्रेज़ों के हित एक जैसे थे. गांधी ने 5 मार्च 1931 को हुए समझौते में भगत सिंह की फांसी को टालने की शर्त को शामिल नहीं किया था. जबकि इस समय पूरा देश और स्वंय कांग्रेस के कुछ सदस्य भगत सिंह की फांसी रुकवाने की मांग कर रहे थे. भगत सिंह की फांसी जहां इतिहास में इस क्रांतिकारी के लिए नैतिक जीत साबित हुई, वहीं गांधी के लिए नैतिक हार.
3. गांधी और अम्बेडकर के मध्य विवाद
अम्बेडकर ने लंदन में हुए गोलमेज़ सम्मेलन में जाकर दलितों के लिए चुनाव में सीटों के बंटवारे की बात अंग्रेज़ों के सामने रखी. जहां इस प्रस्ताव को मंज़ूरी भी मिल गई. अम्बेडकर ने सीटों में आरक्षण के बजाय दलितों को अपना प्रतिनिधि अलग से चुनकर (सेपरेट इलेक्टोरेट) संसद में भेजने की मांग की थी, जिससे व्यवस्था में दलितों की हिस्सेदारी बढ़ सके. लेकिन महात्मा गांधी ने इस बात का विरोध अनशन कर के किया. गांधी के अनशन की वजह से अम्बेडकर पर इस मांग को पीछे हटाने का दबाव बढ़ने लगा. इस वजह से अम्बेडकर को मजबूरी में अपनी मांग हटानी पड़ी.
गांधी अगर विरोध न करते तो असल मायनों में दलित नेतृत्व उभरता, जो दलितों के सरोकारों को आगे बढ़ाता. वर्तमान स्थिति में आरक्षित सीटों पर दलित नेता तो चुने जा रहे हैं, लेकिन मतदाताओं में दलितों की संख्या कम होने पर वो ही दलित नेता चुने जाते हैं, जो बहुसंख्यकों की पसन्द हैं.
4. गांधी और सुभाष चंद्र बोस के मध्य कांग्रेस अध्यक्ष पद को लेकर विवाद
1938 के हरिपुरा अधिवेशन में कांग्रेस का अध्यक्ष सुभाष चंद्र बोस को चुना गया. सुभाष ने अपने कार्यकाल के दौरान संगठन को पूरी तरह अपने प्रभाव में ले लिया था. उस दौरान द्वितीय विश्व युद्ध की वजह से ब्रिटेन पूरी तरह परेशानियों में घिरा हुआ था. सुभाष इस परिस्थिति का लाभ उठाकर आज़ादी की लड़ाई को आक्रामक बनाना चाहते थे. उन्होंने इसके लिए कदम उठाने भी शुरू कर दिए थे, लेकिन गांधी उनके इस कदम से सहमत नहीं थे.
1939 में जब अगले अध्यक्ष के लिए कांग्रेस में चुनाव होने थे, तो सुभाष चंद्र बोस के सामने गांधी ने अपने संरक्षण में पट्टाभि सीतारमैया को खड़ा कर दिया. इस चुनाव में पट्टाभि सुभाष से हार गये. पट्टाभि की हार से बौखला कर गांधी ने इसे अपनी हार करार दिया. कांग्रेस में इस समय काफ़ी उहापोह की स्थिति उत्पन्न हो गई. आगे चल कर गांधी के इस रवैये की वजह से सुभाष चंद्र बोस ने कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे डाला.
5. आज़ादी के बाद नेहरु को प्रधानमन्त्री पद का दावेदार बनाना
एक लम्बी लड़ाई के बाद देश आज़ादी की खुली सांस लेने के लिए तैयार खड़ा था. आगे चल कर देश का प्रधानमन्त्री कौन होगा, इस सवाल के जवाब में गांधी ने नेहरु को चुना. देश के अधिकतर नेता इस पद के लिए सबसे उपयुक्त उम्मीदवार, सरदार वल्लभ भाई पटेल को देश का प्रधानमन्त्री बनाना चाहते थे, लेकिन गांधी की वजह से अन्तिम रूप से नेहरु को चुना गया.
6. बंटवारे के समय पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपये देने की मांग पर अनशन करना
बंटवारे के समय देश में भुखमरी, गरीबी के हालात थे. किसान और मजदूरों की हालत दयनीय बन चुकी थी. देश में लगातार बढ़ती शरणार्थियों की संख्या को सम्भालना सरकार के लिए बड़ी समस्या बनी हुई थी.
ऐसे समय में गांधी ने पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपये देने की मांग रखी. इसके साथ ही इस मांग के लिए सरकार पर दबाव बनाने के लिए अनशन पर बैठ गये. इस वजह से कई लोगों ने उनका विरोध किया. आगे चलकर यह विरोध ही उनकी मृत्यु की वजह भी बना.
दुनिया में इंसान धर्म के रूप में बंटे हुए हैं, लेकिन सभी धर्मों का उद्देश्य एक ही है- दुनिया में अमन और शान्ति की स्थापना करना. उसी तरह आज़ादी की लड़ाई में भी सक्रिय भूमिका निभाने वाले लोग वैचारिक और सैद्धांतिक रूप से कितने भी बंटे हुए क्यों ना हों, लेकिन किसी के भी योगदान को कम करके नहीं आंका जा सकता है. गांधी का जीवन भी अपने सिद्धान्तों की वजह से उतार-चढ़ाव भरा रहा.