“नमाज़ में वो थी पर लगा दुआ हमारी क़ुबूल हो गई” 

प्रिय कुंदन, 

हम सब के जीवन में एक पहला प्यार होता है या पहली नज़र का भी. पहले प्यार का एहसास जीवन भर आपके साथ रहता है. वो बेहद ख़ास, मासूम और पवित्र होता है. इस भाव को हम जितना भी चाहें शब्दों में पिरो नहीं सकते हैं. जब हमें पहली बार प्यार होता है तो ज़िंदगी किसी फ़िल्म की तरह लगने लगती है. कुछ ऐसा ही कुंदन तुम्हारे साथ भी था. ज़ोया को जिस पल से तुमने देखा, उस पल से बस उसको ही चाहा है. 

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हम जिनसे प्यार करते हैं उनको अपना प्यार दिखाने या साबित करने का एक मौक़ा नहीं छोड़ते हैं. तुमने ज़ोया को अपना प्यार साबित करने के लिए अपने हाथ की नस काटी थी. मैं जानती हूं ये बेहद ही बेवकूफ़ी भरा काम है मगर शायद हम सब ने जीवन में एक न एक बार प्यार में कुछ बेवकूफ़ी भरा किया ही होता है. 

जब सालों बाद ज़ोया वापिस आई तब तुम्हें लगा कि इस बार उसको तुमसे स्वयं भोलेनाथ भी जुदा नहीं कर सकते हैं. मगर तुम्हें जल्द ही एहसास हो गया कि ज़ोया किसी और से प्यार करती है. वो दर्द तुम्हारे साथ-साथ मैंने भी महसूस किया. इस बात को इससे ज़्यादा बेहतर तरीक़ा क्या होगा कहने का, ‘आज पता चला, दिल ना ही साला लेफ़्ट में होता है, ना राइट में. सेंटर में होता है क्योंकि हमें वहीं दर्द उठ रहा है.’ 

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तुमने उसे जाने दिया, आख़िर तुम्हें पता था कि ज़बरदस्ती तो प्यार नहीं करवाया जा सकता है. मगर जैसे ही तुम्हें पता चला कि अकरम जायेद, अकरम नहीं जसजीत है तुमने वही किया जो शायद कोई और भी करता. तुम्हें लगा ज़ोया के साथ धोखा हुआ है. मगर अगले ही पल तुम्हें ये भी एहसास हुआ कि तुमने ग़लती कर दी है. बेहद बड़ी ग़लती जिसकी वजह से जसजीत की जान चली गई है. 

ऐसी गलतियां हम सबने की हैं, प्यार हमसे अनजाने में ग़लत चीज़ें करवा लेता है. मगर तुमने अपनी ग़लती सुधारने का सोचा. जसजीत की जान जाने की वजह से ज़ोया तुमसे नफ़रत करने लगती है. तुम चाहते तो ज़ोया को उसके हाल पर छोड़ सकते थे, ज़ोया के लिए तुम उसकी ज़िंदगी की सबसे बड़ी ग़लती हो मगर तुमने तो जबसे उसको देखा था तब से सिर्फ़ उससे ही प्यार किया है. तुम ज़ोया की माफ़ी के लिए उसकी सारी नफ़रत, ग़लतफहमी सब सहते रहे. और जब तक तुम्हें उसकी माफ़ी मिलती, जब तक ज़ोया को एहसास होता कि तुमसे ज़्यादा प्यार उसे कभी किसी ने किया ही नहीं, तुम ने अपने आख़िरी शब्द बोले- 

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बस इतनी ही कहानी थी मेरी.. 

एक लड़की थी जो बगल में बैठी थी, एक कुछ डॉक्टर थे जो अभी भी इस उम्मीद मे थे कि शायद ये मुर्दा फिर जाग पड़े.. एक दोस्त था, जो पागल था.. एक और लड़की थी जिसने अपना सब कुछ हार दिया था मुझपे.. 
मेरी मां थी, बाप था, बनारस की गलियां थीं, और ये एक हमारा शरीर था जो हमे छोड़ चुका था.

ये मेरा सीना जिसमें अभी भी आग बाकी थी.. 

हम उठ सकते थे, पर किसके लिये? हम चीख सकते थे, पर किसके लिये? 
मेरा प्यार ज़ोया, बनारस की गलियां, बिंदिया, मुरारी, सब मुझसे छूट रहा था.

मेरे सीने की आग या तो मुझे ज़िंदा कर सकती थी या मुझे मार सकती थी.

पर साला अब उठे कौन? कौन फिरसे मेहनत करे दिल लगाने को.. दिल तुड़वाने को.. 
अबे कोई तो आवाज दे के रोक लो! 
ये जो लड़की मुर्दा सी आंखे लिये बैठी है बगल में, आज भी हां बोल दे तो महादेव की कसम वापस आ जाएं! 
पर नही, अब साला मूड नही. आंखे मुंद लेने में ही सुख है, सो जाने में ही भलाई है. पर उठेंगे किसी दिन.. उसी गंगा किनारे डमरू बजाने को.. उन्हीं बनारस की गलियों मे दौड़ जाने को, किसी ज़ोया के इश्क़ में फिर से पड़ जाने को…”