हर साल दिवाली आती है और हर साल मैं एक बस के पीछे भागती हूं.

किसी छोटे शहर का एक इन्सान जब बड़े शहर से पीछा छुड़ाते हुए दो दिन के लिए दिवाली मनाने घर जाता है, तो उसका कुछ ऐसा ही हाल होता है. कुछ-कुछ मेरे जैसा.

मेरे पास हर दिवाली एक बड़ा बैग होता है, उस बैग में थोड़ी ख़ुशियां और थोड़े पल समेटने की कोशिश रहती है. हर साल इस कोशिश में रहती हूं कि दिवाली के लिए घर में कुछ ख़ास ले जाऊंगी लेकिन हर बार महंगाई डायन डंक मार जाती है. इसलिए उस बैग को जैसे-तैसे भरने की कोशिश में रहती हूं. 

छोटे शहर का कोई आदमी जब बड़े शहर से चंगुल छुड़ाते हुए अपने गांव वापस जाता है, तो दिवाली में उसका कुछ ऐसा ही हाल रहता है. कुछ-कुछ मेरे जैसा.

मुझे उस बस का एक-एक हिस्सा याद रहता है, जिसमें बैठ कर मैं दो दिन के लिए उस मुए बड़े शहर से नाता तोड़ती हूं. उसके पुराने शीशों से आती आवाज़, उसके अचनाक से लगने वाले ब्रेक, सारे साल भर ज़हन में रहते हैं. बहुत कोफ़्त होती है उस छोटे शहर की बस से शुरू-शुरू में… कभी उसकी ज़रा सी सीटें चुभने लगती हैं, कभी उसमें बैठे मेरे अपने लोग ही मुझे बेगाने लगते हैं. 

मैं दिवाली मनाने बड़े शहर से अपने छोटे शहर तो जाती हूं, लेकिन सच्चाई ये है कि न मैं इधर की रह पाती हूं, न उधर की.

बड़े शहर की दिवाली में मुझे शरीर तो दिखता है, जान नहीं दिखती. उसकी चकाचक भरी दुकानों और लड़ियों से नहाते महलों में ख़ुशियां किसी भुलाए गए बुज़ुर्ग की तरह दिखती हैं, जिसे कोई नहीं पूछना चाहता. लेकिन सच्चाई ये भी है कि छोटे शहर की दिवाली का अपनापन शायद अब बड़े शहर में रहते-रहते मेरे अन्दर ख़त्म हो गया है. दरवाज़ों को फूल-पत्तियों से सजाने से ज़्यादा मतलब मुझे लड़ियां लगाने से रहता है. अपनों से मिलने से ज़्यादा मतलब मुझे अपने घर में रहकर अकेले दिवाली मनाने से रहता है. 

शायद मेरे अन्दर चल रहे उस छोटे-बड़े शहर की दिवाली के द्वंद के बीच मैं ख़ुद कहीं खो गयी हूं.

निकली तो बड़े शहर से मैं अपने शहर की दिवाली मनाने थी, लेकिन शायद उस बस के कुछ पुर्ज़ों की तरह मैं भी कहीं खो गयी हूं.

दो दिन तब अपने उस छोटे शहर को ख़ूब निहारती हूं, कैसे उसकी वो गलियां पहले मेरी सी थी, आज वो किनारे से मुंह उधर कर निकल जाती हैं. लोग अब भी मिलते हैं, हाल-चाल पूछते हैं, लेकिन अब मैं उनके लिए उस शहर की मेहमान हूं, उनके शहर वाली नहीं. 

बड़े शहर से पल भर के लिए भाग कर मैं अपने छोटे शहर वापस तो आती हूं, लेकिन अब मेरा इंतज़ार कोई नहीं करता. न वो गलियां, न किसी भी चौराहे मिलने वाले वो लोग.

Happy Diwali!