छुट्टियों में अपने परिवार और दोस्तों के साथ ज़ू या रिज़र्व पार्क जाना सबको पसंद है. जंगल सफ़ारी करना, जानवरों को देखना, प्रकृति को निहारना. मगर कभी सोचा है आख़िर इन पार्क्स और जंगलों की देखभाल कौन करता है. वन विभाग तो ठीक है, मगर क्या आपने फ़ॉरेस्ट गार्ड या वन रक्षक के बारे में सुना है?
दिमाग़ पर ज़्यादा ज़ोर देना छोड़िये और आइये हमारे जंगलों और प्राकृतिक विरासत की रक्षा कर रहे इन बहादुर और अनसुने लोगों को बारे में जानते हैं.
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कौन होते हैं ये वन रक्षक?
भारत के संपूर्ण जंगलों की रक्षा करने का काम भारतीय वन सेवा (IFS) का है. जिसके लिए भारत में वनों को डिविज़न के हिसाब से बांट दिया गया है. ये डिविज़न आगे चल कर रेंज में बंट जाते हैं, जो कि और आगे सब-रेंज और बीट्स में.
सबसे कम प्रशासनिक इकाई होती है, वन बीट. एक बीट में 10 से 15 किमी का वन क्षेत्र शामिल होता है. एक रेंज के अंदर 3 से 4 बीट्स आती हैं.
हर एक बीट की रखवाली के लिए वन रक्षक या फ़ॉरेस्ट गार्ड होते है. ये वो फ़्रंटलाइन कर्मी हैं, जिनका सबसे पहले और सीधा सामना अवैध शिकार, अतिक्रमण या किसी भी तरह के अपराध एवं गैर कानूनी काम करने वाले लोगों से होता है.
1996-कैडर के भारतीय वन सेवा के अधिकारी रमेश पांडे और पिछले साल के UNEP पर्यावरण प्रवर्तन पुरस्कार विजेता The Better India को बताते हैं,
‘इम्पीरियल फ़ॉरेस्ट सर्विस के साथ औपनिवेशिक काल के दौरान, वन विभाग के प्रमुख अधिकारी यूरोपीय थे. वे स्थानीय वन रक्षकों को नियुक्त करते थे जो शारीरिक रूप से स्वस्थ थे, और उनका मुख्य उद्देश्य जंगलों की सीमाओं का निरीक्षण करना था, यह सुनिश्चित करना कि सीमा स्तंभ बरकरार रहे और अतिक्रमण से क्षेत्र की रक्षा करना. उस समय, एक फ़ॉरेस्ट गार्ड या एक रेंज अधिकारी का काम केवल अपनी सीमाओं का निरीक्षण कर ये देखना था कि वहां अतिक्रमण किया गया है या नहीं.’
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रमेश पांडे वर्तमान में दिल्ली चिड़िया घर के निदेशक के रूप में तैनात हैं.
मगर लगातार बढ़ती इंसान और पशुओं की आबादी ने प्राकृतिक संसाधन पर निर्भता बढ़ा दी है. जिसके चलते जंगलों पर इसका सीधा प्रभाव पड़ा है. पेड़ो की अवैध कटाई, वनोपज का गैर कानूनी संग्रह, अवैध रूप से जानवरों का शिकार आदि गतिविधियों ने जंगलों का हाल बुरा कर दिया है.
आज, संरक्षण कार्य के अलावा, वन रक्षक कई तरह के वानिकी(forestry) गतिविधियों में शामिल हैं जैसे वृक्षारोपण के लिए आधार तैयार करना, वृक्षारोपण के लिए नर्सरी बनाना और उन वृक्षारोपण को जंगलों में बदलने के लिए उनकी रक्षा करना.
वन रक्षकों का वेतन हर राज्य में अलग होता है. कुछ राज्यों में, उन्हें पुलिस कांस्टेबल के जितना वेतन दिया जाता है तो कहीं उन्हें इतना भी नहीं नसीब होता है.
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कठिनाईओं से भरा काम
पिछले साल एक सींग वाले गैंडों और अन्य जानवरों को शिकारियों से बचाने के लिए पिछले तीन दशकों से काजीरंगा नेशनल पार्क में गश्त करने वाले वन रक्षक दिंबेश्वर दास ने रॉयल बैंक ऑफ़ स्कॉटलैंड से प्रतिष्ठित अर्थ हीरो अवार्ड जीता है.
जंगलों या राष्ट्रीय संपत्ति की रक्षा के लिए उन्होंने शिकारियों की गोलियों और धमकियों का सामना किया है, गैंडों, जंगली भैंसों, हाथियों और बड़ी बिल्लियों के शिकार से ख़ुद को बचाया है. अपने परिवार को खतरों से बचाने के लिए कई बार उन्हें अपना घर भी बदला है.
दिंबेश्वर दास का कहना है की ये कोई आसान काम नहीं है. वो बताते हैं कि वन रक्षक को शिकारियों की गोली से डर नहीं लगता, वो शेर जैसे जंगली जानवरों से नहीं डरते, उन्हें गुस्से में ग्रामीणों का सामना करना होता है. ख़राब मौसम हो या अत्यधिक ऊंचाई अपनी जान जोख़िम में डाल जंगल की रक्षा करनी पड़ती है, परिवार वालों के साथ नाम मात्र समय मिलता है, बीमारी और हमेशा अकेले रह कर हम राष्ट्रीय सम्पति की रक्षा करते हैं. कई बार इस दौरान उनकी जान भी चली जाती है.
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वन रक्षकों को मिलने वाली मान्यता और मुआवज़ा
एक वरिष्ठ वन अधिकारी(नाम गुप्त) का कहना है कि वो भी चाहते हैं कि जिस तरह देश की रक्षा के लिए पुलिस और सेना को जाना जाता है उस ही तरह उन्हें भी जाना जाए. आख़िर वो भी देश के लिए अपनी जान दे रहे हैं. देश के एकदम सुनसान दूर दराज इलाक़ों में तैनात ये वन रक्षक जिनके बारे में कोई नहीं जानता.
उन्हें लगता है कि पर्याप्त अवसंरचना और मानसिक स्वास्थ्य सुविधाओं के साथ वन रक्षकों की देखभाल में केंद्र सरकार को बड़ी भूमिका निभानी चाहिए.
अधिकारी का मानना है कि सरकार Project Tiger जैसे संरक्षण परियोजनाओं की सफलता के लिए तालियां तो बटोरती है लेकिन जो लोग वास्तव में जंगलों में रह कर ये काम मुमकिन करते हैं उनकों मजबूत या सशक्त बनाने में विफ़ल रह जाती है. वो वन रक्षक जैसे फ़्रंटलाइन वर्कर्स को बिलकुल भूल जाती है.
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यदि कोई वन रक्षक की जान भी चली जाती है तो राज्य सरकारें तो फिर भी मदद कर देती हैं मगर केंद्र सरकार उनके परिवार की बिलकुल सुध नहीं लेती है. अधिकारी कहते हैं कि कुछ नहीं तो कम से कम उनके बच्चों को स्कॉलरशिप तो मिलनी चाहिए.
और अगर हम राज्य सरकार के मुआवज़े की बात करें तो वो भी कुछ ख़ास नहीं होता है. हर राज्य का मुआवज़ा भी अलग होता है.
ऐसे मुश्किल समय में जब हम अपने स्वास्थ्य कर्मियों के साहस की सराहना कर रहे हैं और उनकी बहादुरी देख रहे हैं, शायद ये समय उन वन रक्षकों को भी पहचानने का है जो चुपचाप हमारी और राष्ट्र सम्पति की रक्षा कर रहे हैं.