हर इंसान अपनी ज़िंदगी में कुछ न कुछ बनना चाहता है. लेकिन कभी-कभी परिस्थितियां सपनों के बीच आ जाती हैं. ऐसी स्थिति में जहां अधिकतर इंसान समझौता कर लेते हैं वहीं कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो अपने सपने और हक़ीक़त बीच की इस खाई को भर कर, अपना भविष्य बनाते हैं. 

कुछ ऐसी ही कहानी है देविन्दर वाल्मीकि की. गांव से सपनों की नगरी मुंबई आया दविंदर का परिवार बेहद ग़रीब था. पिता को इस शहर में ड्राइवर की नौकरी तो मिल गई पर परिवार को एक वक़्त का खाना भी बहुत मुश्किलों से नसीब हो पाता था. 

हमने झुग्गी झोपड़ी वाले इलाके में 10X10 गज़ का एक घर किराए पर लिया था. वहां हमें न तो साफ़ पानी न ही बिजली मिल पाती थी. हर रात हम घर पर मोमबत्ती जलाया करते थे. यहां तक कि स्कूल की फ़ीस व यूनिफॉर्म का ख़र्च भी नहीं उठा पाते थे. फ़िर भी मेरी मां क़र्ज़ ले कर हम दोनों भाइयों को स्कूल भेजती थी. हम सड़क की लाइट्स के नीचे बैठ कर पढ़ाई किया करते थे. क़र्ज़ वापस करने के लिए हम कभी-कभी खाना भी नहीं खाते थे. मां तो कभी-कभी दाल में पानी भी मिला देती थीं ताकि हम पेट भर दाल खा लें. 

देविन्दर को क्या पता था कि उसके अंदर भी हॉकी के लिए एक जुनून था. जब उसने 9th क्लास में पहली बार अपनी भाई को हॉकी खेलते देखा, उसको तभी समझ आ गया था कि वो हॉकी के लिए और हॉकी उसके लिए बनी है. 

मैं हर रोज़ अभ्यास करता था. जब मैदान पर होता था तो अपनी सारी परेशानियां भूल जाता था. मैं भूल जाता था कि मैं कहां से आया हूं और मेरे क्या हालात हैं. मैदान पर मैं बस मैं होता था और वो करता था जो मैं करना चाहता हूं. कोई भी चीज़ मुझे हॉकी में बेहतर होने से नहीं रोक सकती थी. 

आख़िरकार, देविन्दर की मेहनत रंग लाई और उन्हें भारत की अंडर 18 टीम में खेलने का भी मौका मिल गया. 

मैंने बर्मा में ‘एशिया कप’ के लिए भारत का प्रतिनिधित्व भी किया था- मुझे याद है कि स्टेडियम के बीच में खड़ा था, मेरे चारों ओर भारतीय तिरंगा लिपटा हुआ था, वो एक अद्धभुत पल था. मेरे माता-पिता को मेरा मैच टीवी पर देखने के लिए या तो पड़ोसियों के घर या किसी दुकान पर जाना पड़ता था. इसलिए मैंने फ़ैसला किया कि अगर मैं कभी भी ओलंपिक में देश के लिए खेलता हूं तो सबसे पहले घर में बिजली का कनेक्शन करवाऊंगा और माता-पिता के लिए एक बड़ा सा टीवी ख़रीद कर लाऊंगा ताकि वो गर्व से मुझे खेलता देख सकें.  

ज़ल्द ही, देविन्दर को 2016 के रिओ ओलंपिक्स में खेलने का मौका मिला. 

साल 2016 में जब रिओ ओलंपिक्स की घोषणा हुई तो मैं समझ गया था कि मेरा वक़्त आ गया है. हालांकि, मेरे कंधे में चोट लगी थी फिर भी मैं खेलना चाहता था. मैं ट्राय आउट्स के लिए गया हुआ था और ज़ल्द ही मुझे कोच का फ़ोन आया कि मुझे चुन लिया गया है और मैं रिओ जा रहा हूं. रियो जाने से पहले मैंने अपने सारे पैसे जोड़ कर माता-पिता के लिए एक टीवी ख़रीदा. जब मैं रिओ पंहुचा, मुझे पता था कि मेरे ज़ीवन का सारे संघर्ष और कठनाई अब ख़त्म होने वाली है. हम सब ने अपनी पूरी जी-जान के साथ खेला लेकिन बदक़िस्मती से हम हार गए. फ़िर भी मैं जीत गया था क्योंकि मैं अपने देश का प्रतिनिधित्व कर रहा था.  

देविन्दर ने मेहनत और लगन से ना केवल अपनी ज़िंदगी बल्कि अपने माता-पिता की ज़िंदगी भी बदल दी.   

अब हम एक बड़े घर में रहते हैं जिसे को मैंने और मेरे भाई ने माता-पिता के लिए ख़रीदा है. मैं अपनी ज़िंदगी में कुछ बहुत ही बुरे वक़्त से गुज़रा हूं और उसी का नतीज़ा है कि आज मैं इस मुक़ाम पर हूं. झुग्गी झोपड़ी से निकले एक लड़के ने आख़िरकार अपने लिए इस दुनिया में एक जगह बना ही ली. अभी भी मुझे बहुत कुछ हांसिल करना है और मैं अभी रुकने वाला नहीं हूं. 

देविन्दर का जीवन हम सबको ये सिखाता है कि इंसान अपने हालातों के बावज़ूद चाहे तो क्या कुछ हांसिल नहीं कर सकता.