भारत को गुलामी की बेड़ियों से आज़ाद कराने के लिए हज़ारों क्रांतिकारियों व सैनिकों ने अपने प्राणों की आहुति दी थी. इन महान देभक्तों में से एक जनरल शाहनवाज़ ख़ान भी थे. शाहनवाज़ ख़ान वही शख़्स थे जिन्होंने लाल क़िले से अंग्रेज़ों का झंडा उतारकर तिरंगा फ़हराया था. 

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भले ही आज की युवा पीढ़ी इस नाम अंजान हों, लेकिन आज़ादी का दौर देख चुके लोग आज भी उनका बड़े आदर और सम्मान के साथ लेते हैं. आज़ाद हिंद फ़ौज़ के मेजर जनरल शाहनवाज़ ख़ान महान देशभक्त, सच्चे सैनिक और नेताजी सुभाष चंद्र बोस के क़रीबियों में से एक थे. 

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आज़ाद हिंद फ़ौज़ के मेजर जनरल शाहनवाज़ ख़ान का जन्म 24 जनवरी 1914 रावलपिंडी (अब पाकिस्तान) के मटौर गावं में हुआ था. उनके पिता का नाम कैप्टन सरदार टीका ख़ान था. उनकी प्रारंभिक शिक्षा-पाकिस्तान में ही हुई. इसके बाद आगे की पढ़ाई उन्होंने ‘प्रिंस ऑफ़ वेल्स रायल इंडियन मिलेट्री कॉलेज’ देहरादून से पूरी की. सैनिक परिवार में जन्में शाहनवाज़ भी अपने परिवार की परंपरा को आगे बढ़ाते सन 1940 में ‘ब्रिटिश इंडियन आर्मी’ में एक अधिकारी के तौर भारतीय सेना में शामिल हुए. 

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आज़ाद हिंद फ़ौज़ का सच्चा सैनिक 

दरअसल, जिस वक़्त जनरल ख़ान ‘ब्रिटिश इंडियन आर्मी’ में शामिल हुए उस वक़्त ‘विश्व युद्ध’ चल रहा था. इस दौरान उनकी तैनाती सिंगापुर में थी. जापानी फ़ौज़ ने ‘ब्रिटिश इंडियन आर्मी’ के सैंकड़ों सैनिकों को बंदी बनाकर जेलों में ठूंस दिया था. इस दौरान सन 1943 में नेता जी सुभाष चंद्र बोस सिंगापुर आए. नेता जी ने ही ‘आज़ाद हिंद फ़ौज़’ की मदद से इन बंदी सैनिकों को रिहा करवाया. 

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इस दौरान नेताजी के जोशीले नारे ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा’ से प्रभावित होकर जनरल शाहनवाज़ ख़ान के साथ सैंकड़ों सैनिक ‘आज़ाद हिंद फ़ौज़’ में शामिल हो गए. इसके बाद जनरल ख़ान भी देश की आज़ादी के लिए अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ हो गए. जनरल ख़ान की देशभक्ति और नेतृत्व क्षमता से प्रभावित होकर नेताजी ने उन्हें ‘आरजी हुकूमत-ए-आज़ाद हिंद’ की कैबिनेट में शामिल कर लिया. 

इसके बाद सितंबर 1945 में नेता जी आजाद हिंद फौज के चुनिंदा सैनिकों को छांटकर ‘सुभाष ब्रिगेड’ बनायी. दिसंबर 1944 में जनरल शाहनवाज़ को नेता जी ने मांडले में तैनात ‘आज़ाद हिंद फ़ौज़’ की इस टुकड़ी का कमांडर नियुक्त कर दिया. इस ब्रिगेड ने ही कोहिमा में अंग्रेज़ी हुकूमत के ख़िलाफ़ मोर्चा संभाला था. 

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इस बीच बर्मा में लड़ाई के दौरान ब्रिटिश आर्मी ने जनरल शाहनवाज़ ख़ान व उनकी ‘सुभाष ब्रिगेड’ के कई सैनकों को बंदी बना लिया था. इसके बाद नवंबर 1946 में मेजर जनरल शाहनवाज़ ख़ान, कर्नल प्रेम सहगल और कर्नल गुरुबक्श सिंह के ख़िलाफ़ दिल्ली के लाल क़िले में अंग्रेज़ी हकूमत ने राजद्रोह का मुकदमा चलाया. लेकिन भारी जन विरोध के बाद ब्रिटिश आर्मी के जनरल आक्निलेक ने इन सभी को अर्थदण्ड का जुर्माना लगाकर छोड़ दिया. 

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इस दौरान जनरल शाहनवाज़ ख़ान और उनके साथियों की पैरवी सर तेज़ बहादुर सप्रू, जवाहर लाल नेहरु, आसफ़ अली, बुलाभाई देसाई और कैलाश नाथ काटजू ने की थी. 

सन 1946 में ‘आज़ाद हिंद फ़ौज़’ की समाप्ति के बाद जनरल शाहनवाज़ ख़ान महात्मा गांधी और पंडित जवाहर लाल नेहरू की गुज़ारिश पर ‘इंडियन नेशनल कांग्रेस’ में शामिल हो गये. 

जनरल शाहनवाज़ ख़ान शुरू में नेताजी सुभाष चंद्र बोस से प्रभावित हुए तो बाद में गांधी जी के साथ रहे. पंडित नेहरु ने उन्हें ‘ख़ान’ की उपाधि से नवाजा. 

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आज़ाद हिन्दुस्तान में लाल क़िले पर ब्रिटिश हुकूमत का झंडा उतारकर तिरंगा लहराने वाले जनरल शाहनवाज़ ख़ान ही थे. देश के पहले तीन प्रधानमंत्रियों ने भी लाल क़िले से जनरल शाहनवाज़ का ज़िक्र करते हुए ही अपने संबोधन की शुरुआत की थी. 

सन 1947 में प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने उन्हें ‘कांग्रेस सेवा दल’ के सदस्यों को भी सैनिकों की तरह प्रशिक्षण और अनुशासन सिखाने की अहम ज़िम्मेदारी सौंपी. इस दौरान उन्हें ‘कांग्रेस सेवा दल’ के सेवापति के पद से नवाजा गया. वो सन 1947 से 1951 तक इस दल से जुड़े रहे. और अपने जीवन के अंतिम दिनों में भी वो 1977 से 1983 तक कांग्रेस सेवा दल के प्रभारी बने रहे. 

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जनरल शाहनवाज़ ख़ान सन 1952 में देश के पहले लोकसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस के टिकट पर मेरठ से चुनाव जीते. इसके बाद सन 1957, 1962 व 1971 में भी वो मेरठ से लोकसभा चुनाव जीते. मेइस दौरान जनरल शाहनवाज़ ख़ान 23 साल तक केंद्र सरकार में मंत्री भी रहे.