ये लेख पूरी तरह से रूमानियत से भरा पड़ा है. अगर तमाम ज़िंदगी ख्वाबों में रहना चाहते हो तो नज़रों को आगे बढ़ने दो.

रात के बाद सवेरा, सवेरे के बाद फिर से रात. ये मामूल (दिनचर्या) कब तक चलती रहेगी कोई नहीं जानता. वादियां हमारी आंखों के सामने मंडराती हैं. पर हम वो देखना चाहते हैं जिसे देखने की हमारी तमन्ना होती है. लेकिन जिसे न देखना चाहते हो और उसे देखना पड़े, उसके लिए नज़र में दूरी रहना ज़रूरी है. बता दूं कि लेखक कलम से नहीं, बल्कि नज़रों से ही लिखता है.

इस दिनचर्या से परे कुछेक ज़िंदगियां हट जाती हैं. वो दुनिया से दूर एक कोने में बैठी सब देख रही होती हैं. उनका आसमान अहसासों का होता है, वहां शिकवे नहीं होते, गिले नहीं होते, उस कोने में इतनी नमी है कि जिस्म का हर हिस्सा ऐसे गीला-गीला सा लगता है. मानो बरसों से ये भीगा-भीगा सा मौसम वो रोज़ पी रहा हो.

नज़्में और नगमें दोनों भाई-बहन हैं. एक अपने अंदर कई किस्से लेकर झूमती है, तो दूसरी अपनी लय में मस्त है. विचार दोनों में लेखक ने भरे हैं. जन्म दोनों को लेखक ही देता है. नज़्मों को पालने और गीत को अपनी जेब में रखने वाले एक गीतकार का नाम है गुलज़ार.

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वही गुलज़ार जो ज़िंदगी से नाराज़ नहीं हैरान हो जाता है, उसे ज़िंदगी से कोई शिकवा नहीं. वो अपने गानों में रात को रोक लेने के बाद उस रूठी रात को मीठी सुबह का दिलासा देकर मनाता है. अकसर उसकी शामें बड़ी अजीब होती हैं. नज़्म जब उसके ख्यालों के झरोखे में दस्तक देती है, तो उसके चेहरे पर नूर आ जाता है. वो अच्छी तरह से जानता है कि आने वाला पल जाने वाला है. अपने साथिया के साथ मिलकर वो उस पल की सारी हंसी पी जाता है. कजरारे नैना वाली ज़िंदगी को गुलज़ार रोज़ आखों के तले रखता है और सुबह उठकर उसे गले लगा लेने के बाद उस मोड़ पर छोड़ आता है, जहां से सुस्त कदम रस्ते गुज़रते हैं. बदनाम मौसम में इस शायर का दिल बहुत कुछ ढूंढ़ता-ढूंढ़ता बावरे लोगों के बीच बैठ कर छईयां-छईयां करता है. इसका कुछ सामान दो दीवानों के एक शहर में पड़ा है. नाम गुम जाने के बाद गुलज़ार अजनबी हो जाता है. धीरे-धीरे ‘उर्दू’ इसका नाम हो जाती है. नज़्मों की गलियों में बराबर झूमता है ये. कुछ देर बाद इसका दिल हूम-हूम करने लगता है, फिर संतरगी से गीत के झरने तले सांस लेता है गुलज़ार. इश्किया के पेड़ तले इसके दिल का मिजाज़ इश्क़िया हो रहा है. इश्क़ का सजदा करने के बाद इसकी सांसें गीतों की तरह चलने लगती हैं, बर्फ़ की नीली हवा के सामने कलम उठाकर गुलज़ार ज़िंदगी को फिर से गले लगाकर कुछ लिख रहा है.

वो जो भी लिख रहा है, बस डूबने के लिए लिख रहा है. फिर से वो झूमेगा, हल्के-हल्के बोलेगा, उसकी सांसें किसी की सांस में मिल जायेंगी. उसे फिर से सांस आयेगी. और वो अपनी गलियां छोड़कर गुलों में रंग भरने के बाद झेलम के किनारे सुस्तायेगा.

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एक नमी को ये सफ़ेद शायर अपनी कलम में उतार लाया है. वहां से कुछ शिकवों की स्याही भी भरी है उसने अपनी कलम में. नगमों से लेकर नज़्मों तक, नज़्मों से लेकर गीत और गीतों से निर्देशन तक, गुलज़ार अपने आपको भिगोता रहता है. एक डोरी है गुलज़ार, जिसके सहारे नज़्में बंध जाती हैं, कभी उलझ जाती हैं. जीवन उसका रेशमी है. तारों के पास जो चांद है, उस पर गुलज़ार ने एक घर किराये पर ले रखा है. उस किराये के घर में बैठकर उसने उर्दू को सहलाया है हर रात. ये टेढ़ी-ज़ुबान उसके सीने में मुल्लाओं ने नहीं गढ़ी, बल्कि हालातों की बेंत से ये ज़ुबां उस पर अपने निशां छोड़ गई है.

गुलज़ार के बारे में क्या कहें. क्या कहें. लिखने से पहले गुलज़ार साहब के बारे में कुछ नहीं सोच पाया था. जितने नगमे, जितनी नज़्में गुलज़ार के बाड़े में पली हैं, सबका डील-डौल अलग है. सारा लिखा हुआ हर बार ऐसा लगता है जैसे पहली बार लिखा हो. शायद गुलज़ार एक ऐसा किरदार है, जो हर बार कलम को हाथ में लेते ही पैदा होता है. जब-जब वो लिखता है, तब-तब वो पैदा होता है. कलम के धरते ही गुलज़ार गुम हो जाता है और संपूर्ण सिंह कालरा (गुलज़ार का असल नाम) सामने आ जाता है.