1699 में बैसाखी के दिन खालसा पंथ की स्थापना करने वाले सिखों के दसवें गुरु श्री गुरु गोबिंद सिंह ना केवल योद्धा थे, बल्कि एक महान कवि भी थे. गुरुजी का जन्म 1666 में पटना में हुआ था. वे आज तक गुरुग्रंथ साहिब के ज़रिये अपने अनुयायियों का मार्गदर्शन कर रहे हैं. उन्होंने ही सिखों को ‘वाहे गुरुजी का खालसा, वाहे गुरु जी की फतेह’ का एक नया नारा दिया था. उनके 350वें जन्मदिन पर आयोजित ‘सिख इंटरनेशनल कॉन्क्लेव’ (पटना) में हिन्दी साहित्यकार लाल मनोहर उपाध्याय ने कहा कि ‘गुरु गोबिंद सिंह को केवल गुरुमुखी का ही नहीं, बल्कि कई भाषाओं का ज्ञान था. उन्होंने 17 रचनाएं लिखी, जो ‘दशम ग्रंथ’ का हिस्सा हैं. ये ग्रंथ गुरुग्रंथ साहिब से अलग हैं. इन 17 रचनाओं में से केवल एक पंजाबी में है. बाकी हिन्दी, ब्रज, फारसी, भोजपुरी और अन्य भाषाओं में हैं. इससे गुरु जी की बहुमुखी प्रतिभा का पता चलता है.

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वहीं गुरुनानक देव यूनिवर्सिटी (अमृतसर) के प्रोफेसर डॉ. हरमिंदर सिंह बेदी ने कहा कि ‘गुरु गोबिंद सिंह हिन्दी साहित्य में भी ऊंचा स्थान रखते थे. उन्होंने अपनी रचानाओं में ब्रजभाषा के शब्दों का बड़ी खूबसूरती से इस्तेमाल किया है. उनके दरबार में 52 कवि थे. उन्होंने उपनिषदों का 50 बार, गीता का 9 बार हिन्दी में अनुवाद कराया था. उनके शास्त्र पुराण में 101 शस्त्रों का विस्तृत वर्णन है. हिन्दी इतिहासकार रामचन्द्र शुक्ल का हवाला देते हुए बेदी ने कहते हैं कि ‘गुरुजी सही मायने में ‘वीर रस’ के कवि थे. यकीनन हमें ‘वीर रस’ का उनसे बेहतर कवि नहीं मिल सकता.

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दिल्ली से प्रोफेसर सुखदयाल सिंह ने कहा कि गुरु जी ने फारसी में ‘ज़फ़रनामा’ लिखा है. यह साहित्य का ही एक उदाहरण है, जिसमें एक समकालीन शासक (औरंगजेब) की संक्षिप्त रूप में आलोचना की गई है. उन्होंने कहा कि गुरु जी कविता का प्रयोग केवल साहित्य के लिए नहीं, बल्कि लोगों में ‘वीरता’ पैदा करने के साधन के रूप में करते थे.

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वक्ताओं ने ये भी कहा कि ‘गुरुजी ने खालसा पंथ बनाने के लिए Panj Pyaras (पांच प्यारे) के बीच तीन दलितों का भी चयन किया था, जिससे इस बात का पता चलता है कि उनके दिल में दलित और गरीब हमेशा से थे. आज भी गुरु गोबिंद सिंह की कविताएं समाज के लिए प्रासंगिक हैं. वे हिन्दी साहित्य के साम्प्रदायिक सद्भाव के बड़े कवि थे. उनके जैसा भक्ति और ‘वीर रस’ का कवि नहीं हुआ.