सरसों के तेल में बने खाने की बात ही कुछ और होती है. आजकल ये तेल मशीनों के ज़रिये निकाला जाता है और लोगों तक पहुंचाया जाता है. पर आज़ादी से पहले ऐसा नहीं था. उस जमाने में तेल निकालने के लिए इंसानों के साथ बैलों को भी काफ़ी मेहनत करनी पड़ती थी. तब सरसों से तेल निकालने के लिए कोल्हू बैल की देसी तकनीक का सहारा लिया जाता था, जो धीरे-धीरे अब ख़त्म होती नज़र आ रही है.

मगर टेक्नोलॉजी के इस ज़माने में भी कोल्हू बैल की इस देसी तकनीक को ज़िंदा रखे हैं, हाजी गुलाम मोहम्मद तेली. कश्मीर के बारामुला ज़िले के तेलीवान गांव में रहने वाले हाजी साहब पिछले 6 दशकों से इसके ज़रिये तेल निकालते आ रहे हैं.

4 घंटे लगते हैं 3 लीटर तेल निकालने में

सुबह की अज़ान के साथ ही हाजी साहब अपने बैल के साथ इस काम में जुट जाते हैं. 4 लीटर तेल निकालने में उन्हें करीब 3 घंटे लगते हैं. इसके बाद वो कई किलोमीटर पैदल इस तेल को गांव-गांव बेचते हैं. एक लीटर के उन्हें 120 रुपये मिल जाते हैं.

तेलीवान मोहल्ले की आख़िरी मिल

इसी से ही उनकी रोज़ी-रोटी चलती है. हाजी की ये मिल तेलीवान मोहल्ले की आख़िरी मिल बची है. क्योंकि उनकी बिरादरी के सभी लोग मशीनों के आने के बाद ही इस तकनीक को छोड़ चुके थे. Power-Driven Hydraulic Presses और Rotaries ने इस देसी तकनीक को लोगों को भूलने पर मजबूर कर दिया.

बच्चे नहीं करना चाहते ये काम

मगर हाजी साहब ने कभी इसका साथ नहीं छोड़ा. उन्होंने बताया कि उनकी सात पीढ़ियां कोल्हू बैल की मदद से तेल निकालने का काम करती आ रही हैं. 

हाजी ने कहा, ‘मैं जब 12-13 साल का था, तबसे अपने पिता के साथ काम कर रहा हूं. इसे चलाना मैंने उन्हीं से सीखा. मैं उनके साथ तेल बेचने भी जाता था. मैंने इस काम की बदौलत अपना घर लिया और अपने 5 बच्चों की शादी भी की. पर अब मेरे बच्चे इस काम को करना नहीं चाहते.’

उन्होंने आगे कहा, ‘यूं तो शुद्ध सरसों के तेल की डिमांड आज भी मार्किट में है. मगर अब मशीनों ने हमारा मुनाफ़ा बांट लिया है. जब सभी इस देसी तकनीक को छोड़ रहे थे, तब मैंने पुरखों की इस तकनीक को ज़िंदा रखना बेहतर समझा.’

मेरे साथ ही इस तकनीक का भी अंत हो जाएगा, इसके बारे में सोच कर ही मैं दुखी हो जाता हूं. पर क्या करें सबकी अपनी-अपनी ज़िंदगी है, जिसे वो अपने तरीके से जीना चाहते हैं. कोई सिर्फ़ बाप-दादाओं की परंपरा के ख़ातिर अपनी पूरी लाइफ़ ग़रीबी में क्यों गुज़ारेगा.

हाथों-हाथ बिक जाता है तेल

मार्केट में अब अलग-अलग प्रकार के ब्रैंड आ गए हैं और प्रतिस्पर्धा बढ़ गई है. इसके बारे में हाजी साहब बताते हैं कि उनके कुछ पुराने ग्राहक हैं, जो सिर्फ़ उन्हीं से तेल ख़रीदते हैं. वो कई दशकों से उनके ग्राहक हैं. तेल की इस छोटी सी मिल को एक लकड़ी और उससे बंधे बैल के ज़रिये चलाया जाता है. जैसे ही बैल चलता है, बीच में रखे सरसों के बीजों पर दबाव पड़ता है. इस तरह उनसे खल और तेल निकलता है.

अपने सरसों के तेल के बारे में हाजी साहब कहते हैं कि इस तेल से बने खाने से कई हेल्थ बेनिफ़िट्स हैं. और इसी की बदौलत उनका तेल हाथों-हाथ बिक जाता है. अपने कस्टमर के इसी भरोसे के दम पर ही वो इस विरासत को जीवित रखने में सक्षम हैं.

पर अफ़सोस न सरकार और न ही उनका परिवार इस देसी तकनीक को बचाने को लेकर गंभीर है. क्या सरकार इसे बचाने के लिए कुछ नहीं कर सकती?