कोरोना वायरस भारत समेत पुरी दुनिया पर एक बड़ा ख़तरा है. तमाम देश इससे निपटने की कोशिश कर रहे हैं. एक पूरी पीढ़ी ने शायद ही इससे बड़ा ख़तरा कभी अपने सामने देखा हो. हालांकि, इन मुश्क़िल भरे हालात में भी कुछ ऐसी ख़बरें आती हैं, जो इस बात ताकीद करती हैं कि इंसान मर सकते हैं लेकिन इंसानियत नहीं. गुजरात के रहने वाले अब्दुल मालाबारी ऐसी ही इंसानियत की झंडाबरदारी करते हैं. 

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क़रीब तीन दशकों से अब्दुल लावारिश लाशों के की ज़िम्मेदारी संभाल रहे हैं. लेकिन उन्होंने भी कभी नहीं सोचा था कि एक दिन वो ऐसे लोगों को दफ़न करेंगे जिनके परिवार उन्हें अलविदा कहना चाहते हैं, मगर कोरोना वायरस के कारण वो ऐसा नहीं कर सकते. 

51 साल के अब्दुल बताते हैं कि उनके काम करने का समय तय नहीं है. ‘हमें जैसे ही कॉल आता है हम तुरंत ही मौके पर किट के साथ पहुंच जाते हैं.’ गुजरात के सूरत में जब भी कोरोना के कारण कोई मौत होती है तो अफ़सर तुरंत अब्दुल को फ़ोन करते हैं. 

सूरत के डिप्टी कमिश्नर आशीश नायक ने बताया, ‘इस कठिन समय में अब्दुल भाई ने बहुत मदद की है.’ 

अब्दुल ने कहा कि इस काम में खतरा है लेकिन ये उनका काम है इसलिए वो कर रहे हैं. वो और उनकी टीम घर नहीं जाते हैं ताकि उनका परिवार इस ख़तरनाकर वायरस से बचा रहे. साथ ही ये पहली बार नहीं है, जब वो दूसरों के लिए इस हद तक जाकर काम कर रहे हैं. वो पिछले तीन दशक से ऐसे ही लोगों की मदद करते आए हैं. 

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बहुत पहले एक सकीना नाम की लड़की थी, और वो एचआईवी से पीड़ित थी. उसका पति और बेटा उसे अस्पताल लेकर आए थे, लेकिन फिर गायब हो गए. उन्हें तलाश किया गया पर कोई फ़ायदा नहीं हुआ. वो क़रीब एक महीने तक मुर्दाघर में ही पड़ी रही. अधिकारियों ने हताश होकर मुस्लिम स्वंयसेवकों से उसे दफ़नाने की अपील की. 

अब्दुल उस वक़्त महज़ 21 साल के थे. उस वक़्त सूरत में एकमात्र संगठन जो लावारिस लाशों को दफ़नाने का काम करता है, उससे संपर्क किया लेकिन वो यहां मौजूद नहीं था. ऐसे में अब्दुल ने ख़ुद ही सकीना को दफ़नाने का तय किया. 

अब्दुल उस पल को याद करते हुए कहते हैं कि महिला की बॉडी से बहुत ‘बास’ आ रही थी. लेकिन वो पीछे नहीं हटे. उन्होंने कुछ औरतों को महिला को इस्लामिक परंपरा के हिसाब से नहलाने के लिए कहा लेकिन सभी ने मना कर दिया. क्योंकि सकीना को एचआईवी था, और 1990 में भी लोग कुछ-कुछ इस बीमारी को समझते थे. ऐसे में अब्दुल ने खुद ही दफ़नाने से पहले एक बाल्टी पानी से महिला को नहलाया. 

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उन्होंने कहा कि इस बात को समझने में उन्हें एक पूरा दिन लग गया कि सूरत में ये काम कोई एक अकेला आदमी नहीं कर सकता और न वो ये ख़ुद ही अकेले कर पाएंगे. इसलिए उन्होंने चैरिटी शुरू की. उन्होंने बताया कि उनका परिवार कपड़ो का व्यवसाय करता था और शूरू में इस काम के ख़िलाफ़ था. 

‘मुझे याद है कि किस तरह मैं उन्हें समझाता था कि इस्लाम कहता है कि ये हर नागरिक का फ़र्ज़ है कि एक व्यक्ति की अंतिम यात्रा सम्मानपूर्वक निकालने में मदद करे.’ 

आज कोरोना वायरस से मरने वालों की बॉडी को लेकर और भी ख़ौफ़ है. जबकि हेल्थ एक्सपर्ट्स का कहना है कि मृत व्यक्ति से ये वायरस ट्रांसमीट नहीं होता हालांकि, कपड़ों पर कुछ घंटो के लिए ये रहता है. ऐसे में एक बार बॉडी को बैग में पैक कर दिया जाता है, तो परिवार के लोग भी उसे नहीं देख सकते. 

अब्दुल और उनकी टीम पूरी सावधानी बरतते हैं. इसके लिए उन्हें ट्रेन भी किया गया है. वो बॉडी और जिस गाड़ी से शव को ले जाते सभी को सैनेटाइज़ करते हैं. यहां तक कि कब्रिस्तान या श्मशान को प्रत्येक अंतिम संस्कार के बाद सैनेटाइज़ कर दिया जाता है. 

उन्होंने कहा कि सबसे मुश्क़िल काम ऐसे परिवारों से डील करना होता है, जो अपने परिवार के व्यक्ति को अलविदा तक नहीं कह पाते क्योंकि वो ख़ुद भी क्वारंटीन में होते हैं. 

अब्दुल ने कहा कि आज उनकी लड़की और दो बेटे उन पर गर्व महसूस करते हैं. उनके साथ 35 स्वयंसेवक और 1,500 डोनर हैं. साथ ही उनके परिवार को सपोर्ट भी है. 

उन्हें सबसे ज्यादा गर्व इस बात पर है कि उनकी टीम में सभी धर्मों और जातियों के लोग शामिल हैं. ‘हमारे पास हिंदू स्वयंसेवक हैं जो मुसलमानों के शवों को दफ़न करते हैं, और मुस्लिम स्वयंसेवक जो हिंदुओं के शवों का अंतिम संस्कार करते हैं.’ 

अब्दुल ने कहा कि जो सुकून उन्हें ये काम करके मिलता है, वो किसी और काम से नहीं मिल सकता था.