तिरंगे की अहमियत को इसी बात से समझा जा सकता है कि एक बार महात्मा गांधी ने एक सभा को संबोधित करते हुए कहा था कि ‘इस तिरंगे को आज़ाद कराने के हमनें कुर्बानियां दी हैं. हमारे बलिदान की वजह से ही ये आज आसमान में यूं लहरा रहा है.’ आज भी ये तिरंगा हमारी आन-बान और शान का प्रतीक है. 26 जनवरी पर राजपथ के सामने होने वाला राष्ट्रगान हो या ओलंपिक का कोई इसके सम्मान में सिर खुद-ब-खुद झुक जाता है. आज हम आपको अपने इसी तिरंगे से जुड़ी कुछ ऐसी बातें बताने जा रहे हैं, जिसका जिक्र शायद ही कहीं सुनने को मिलता है.
इसके डिज़ाइन के पीछे किसका दिमाग़ था?
भारतीय झंडे को तिरंगे का रूप देने के पीछे स्वतंत्रता सेनानी पिंगली वेंकैया का दिमाग़ था, जिसे संविधान सभा ने पूर्ण सहमति से 22 जुलाई 1947 को स्वीकार किया था.
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स्वतंत्रता संग्राम के साथ-साथ बदला तिरंगे का रूप.
तिरंगे का आज जो हम रूप देखते हैं उसके पीछे बदलाव का एक लम्बा चक्र जुड़ा हुआ है. जिसकी शुरुआत 7 अगस्त 1906 में बंगाल के Parsee Bagan Square से हुई थी. इस समय तिरंगे लाल, हरा और पीले रंग का हुआ करता था, जिसमें सबसे ऊपर कमल का फूल और बीच वंदे मातरम लिखा हुआ था.
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तिरंगे में दूसरा बदलाव 1907 पेरिस में 22 अगस्त को देखने को मिला, जब भीकाजी कामा की अगुवाई में क्रांतिकारियों ने तिरंगा फहराया. इसमें लाल रंग की जगह केसरिया रंग शामिल होने के साथ ही ऊपर आ गया, जबकि कमल के फूलों की संख्या पहले जितनी ही रही.
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तीसरा बदलाव 1917 में ‘होम रूल मूवमेंट’ के दौरान देखने को मिला. लोकमान्य तिलक और एनी बेसेंट के नेतृत्व में उसका रूप कुछ ऐसा रखा गया.
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तिरंगे में चौथा बदलाव 1921 में ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी द्वारा किया गया, जिसमें महात्मा गांधी जी ने चरखा जोड़ दिया. तिरंगे के इस रूप में लाल और हरा रंग दे कर गांधी जी इससे हिन्दू-मुस्लिम के बीच एकता को दर्शाना चाहते थे.
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1931 में तिरंगे में एक और बदलाव किया. केरसरिया, सफ़ेद और हरे रंग वाले इस तिरंगे को भारत का राष्ट्रीय ध्वज भी घोषित किया, जिसे सुभाष चंद्र बोस द्वारा गठित इंडियन नेशनल आर्मी ने भी स्वीकार किया.
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तिरंगे का जो रूप हम आज देख रहे हैं उसे 22 जुलाई 1947 में स्वीकार किया गया था. इसका रूप पहले की तरह ही था, बस इसमें सम्राट अशोक के धर्म चक्र को जोड़ दिया गया, जो न्याय का प्रतीक था.