सन् 2016, वो साल जब मैंने दिल्ली में कदम रखा, नौकरी के लिए.  

दिल्ली के बारे में बहुत कुछ सुना था. बहुत क्राइम है, बहुत प्रदूषण है पर यहां के लोग दिलवाले हैं. ग़ालिब और इतिहास की गवाही देने वाली कई इमारतों के इस शहर को और ख़ास बनाती है. वगैरह, वगैरह… 

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कुछ चटोरे और खदोड़ (अति भुक्खड़) दोस्तों ने ये भी बताया कि दिल्ली खाने-पीने के लिए मशहूर है. वैसे तो ये बात भारत के किसी भी शहर के लिए कही जा सकती है. हम हिन्दुस्तानी हैं ही खाना प्रेमी लोग. जब मैंने उनसे स्पेसिफ़िकेशन पूछा, तो उनका जवाब था, ‘सब मिलेगा, तुम ऐश करो न करो तुम्हारे टेस्ट बड्स की चांदी होगी .’ 

उन पर यक़ीन करना पहली ग़लती थी. ख़ैर दिल्ली आ गए, भागते-दौड़ते लोगों के बीच मैं भी एक भागने-दौड़ने वाली लड़की बन गई. उस भीड़ का हिस्सा बन गई जिसका एक मेट्रो छूटना दिन की सबसी बड़ी हार के समान होता है.


उफ़्फ़… फिर टॉपिक से भटक रही हूं. सॉरी, सॉरी.  

हां तो इस शहर में अपने पहले ही दिन पीजी फ़िक्स करके, ज़रा सुस्ताकर जो सबसे पहला काम किया वो था, पास के गोलगप्पे के दुकान पर जाना. दिल्ली के खाने से ये मेरा परिचय था. पहला गोलगप्पा जीभ पर रखते ही, मन-मस्तिष्क सब प्रसन्न हो गया. खट्टा-तीखा पानी और मस्त वाला आलू. यूं लगा जैसे दिल्ली के खाने के बारे में जो कुछ भी बताया गया था वो सच था.

आदतन गोलगप्पे वाले से बात की और पता चला कि वो उत्तर प्रदेश से है. ज़ाहिर सी बात है स्वाद का असल राज़ वो था. पेट भर चुका था फिर भी एक प्लेट चाट बनवाकर भकोस गई, और चाट ने भी निराश नहीं किया. 

पीजी के दाल-चावल से तंग आकर फ़्लैट में पदार्पण किया. और फिर से आदतन घर के पास के गोलगप्पे वाले के पास टोकरी भर कर उम्मीदें लेकर गई, पर उसने उम्मीदों पर नाले का पानी फेर दिया. पहला गोलगप्पा खाकर लगा इसे मुझसे किसी बात का बदला लेना है, पानी में स्वाद के नाम पर सिर्फ़ कलर था और आलू में मसाले के नाम पर चुटकी भर नमक. कसम से 10 के 4 भी नहीं खा पाई.  

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और फिर यहां से शुरू हुई मेरी और दिल्ली के बीच की तनातनी. कई फ़्लैट बदले, शहर के कई कोनों में गई. पुरानी दिल्ली की तथाकथित गलियों में भी खाक छानी और हारकर घर आ गई. कहीं भी गोलगप्पे या चाट का वो स्वाद नहीं मिला. पीजी के पास वाले गोलगप्पे वाले के पास भी गई, पर उनका ठेला ग़ायब हो चुका था.  

कहने को तो दिल्ली से पूरा देश चलाया जता है पर यहां खट्टे-तीखे, मस्त आलू वाले गोलगप्पे की कोई स्कीम नहीं चलाई जा सकती.  

काफ़ी खोज-ख़बर करने के बाद, सीआर पार्क के बारे में पता चला. 150 रुपए ऑटो करके गोलगप्पे खाने पहुंच गई, पेटभर खा भी लिया. हां, वहां स्वाद मिला. पर ख़ुद सोचो कोई उत्तर से दक्षिण आए वो भी गोलगप्पा खाने के लिए? मतलब अंबानी थोड़ी हो गए हैं?

मुझे समझ नहीं आता कि आख़िर दिल्ली के गोलगप्पे वालों को खट्टा पानी और तीखा मसाला बनाने में क्या आपत्ति है? और उससे भी ज़्यादा ये समझ नहीं आता कि बेस्वाद पानी और आलू-चने वाली फ़िलिंग के नाम पर मज़ाक शहर के लोग कैसे बर्दाश्त कर लेते हैं? 10 रुपए में 3-4 अजीब से, बेस्वाद, गोलगप्पे देते हैं और यहां के लोग भी ख़ुश हो जाते हैं. ग़लत है, नाइंसाफ़ी है ये.  

मैं तो कहती हूं कि खाद्य मंत्रालय को इस विषय में कुछ करना चाहिए. अरे भाई, खाने के शौक़ीनों के साथ ऐसा मज़ाक बर्दाशत कैसे किया जाए? 

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