एक दौर था जब हमारा खाना-पीना, खेलना-कूदना और सोना-जागना सब छत पर होता था. बारिश के मौसम में यूं छत पर घूम-घूम कर भीगना, होली पर मम्मी के साथ पापड़ बनवाना. ये सारी चीज़ें बहुत याद आती हैं, घर की छत याद आती है. याद है, सर्दियों में घंटों छत पर बैठ कर धूप सेंकते हुए, सखियों से गप्पे लड़ाते थे. यही नहीं, कई दिलों की मुलाक़ात भी, तो इसी छत ने कराई है.

छतों से कूदना छत पर, छतों से छत पर चढ़ जानापलों पर पांव रख कर कूद जाते थे ज़माना वो घर न थे घराने थे, छतों के वो ज़माने थे
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बचपन के सुख-दुख़ की साथी है ये छत, प्यार में लड़ाई होने पर हमारे कई आंसू देखे हैं इस छत ने. घर के कई शुभ काम भी इसी छत पर ही निपट गए. छत पर जाते थे कपड़े सुखाने, लेकिन लग जाते पड़ोस की छत पर रखा आचार खाने. याद है, कैसे स्कूल की छुट्टी के बाद मोहल्ले के दोस्तों को जमा कर, छत पर खो-खो और बैट-बॉल खेलते थे.

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मैट्रो सिटी में ज़िंदगी अच्छी चल रही है, लेकिन फिर भी मुझे छत पर गुज़ारी हुई चांदनी रातें और ताज़ा हवा बहुत याद आती है. रात में वो खुले आसमान के नीचे लेटना और तारे गिनना, पर कभी गिनती का ख़त्म न होना. साथ ही याद आता है गर्मियों की छुट्टी में बुआ और मौसी के बच्चों के साथ छत पर गुड्डा-गुड़िया की शादी रचाना और खाना-बनाना. मेरा शहर और मेरी छत, आज भी मुझे दोनों की कमी खलती है. मैट्रो सिटी के फ़्लैट्स में आपको सारी सुख-सुविधाएं मिल जाएंगी, बस कमी है, तो छत की.

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यार…सच कहूं तो छत वाले दिन ही असली ख़ुशी और आज़ादी के दिन थे. खिचड़ी के त्योहार पर पतंग उड़ाना, गर्मियों में छत को ठंडा रखने के लिए उस पर पानी का छिड़काव करना और फिर उसी पानी में नंगे पैर छप-छप करना, ये सब करने में कितना मज़ा आता था न? बस इसीलिए मुझे मेरी छत बहुत पसंद थी. आज भी छोटे शहरों में घर की महिलाएं छत पर पापड़ और आचार बनाती हैं. सर्दियों में धूप में बैठकर स्वेटर बुनती हैं. होली वाले दिन लोग छत पर होली खेल, उसे रंगों से रंग देते हैं.

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बड़े शहर में रह कर छत की कमी हमेशा खलती है और शायद उम्र भर खलती भी रहेगी. कोई लौटा दे वो मेरे छत वाले सुनहरे दिन!