कई बार कुछ लोग कुछ ऐसा कर गुज़रते हैं, जिससे कई लोगों की ज़िन्दगी बदल जाती है. 


कुछ ऐसा ही किया बिहार के छपरा ज़िले के एक गांव के रहने वाले प्रकाश पांडे ने. प्रकाश टूटे-फूटे सरकारी स्कूल में पढ़ कर बड़े हुए. उनकी क्लास में बेंच नहीं थी, न ही स्कूल में बिजली थी. कभी-कभी तो बिना बात के ही क्लास कैंसल हो जाती थी. 

भारतीय वायुसेना में एयर ट्रैफ़िक कन्ट्रोलर के तौर पर काम करने वाले प्रकाश के गांव वाले ज़्यादा कुछ नहीं बदला है.  

The Better India से बातचीत में प्रकाश ने बताया कि आर्थिक विवशता के कारण वे 10वीं के बाद पढ़ाई नहीं कर पाए और नौकरी की तलाश में दिल्ली चले गए.  


कुछ साल प्राइवेट सेक्टर में नौकरी करने के बाद प्रकाश 2012 में भारतीय वायुसेना से जुड़ गए. इसके बाद वे अपनी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में व्यस्त हो गए. सालभर बाद जब वे वापस गांव गए, तो उन्होंने देखा शिक्षा की जो लचर स्थिति उन्होंने देखी थी वही बरक़रार है. 

प्रकाश के शब्दों में, 

मैंने स्कूली पढ़ाई के दौरान न किसी कंप्यूटर को हाथ लगाया था और न ही किसी लाइब्रेरी में प्रवेश किया था. किताबों और शिक्षकों की हमेशा कमी थी. छुट्टियों में गांव जाकर मैंने देखा कि स्थिति ज़रा भी नहीं बदली है. ये बहुत चिंताजनक था और मुझे कुछ करना था.

-प्रकाश पांडे

प्रकाश ने अपने बचत के पैसों से गांव के बच्चों के लिए स्कूल खोलने का निश्चय किया. पर वो कहते हैं न कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है, प्रकाश के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ. प्रकाश के शब्दों में, 

मैं सम्मानीय काम कर रहा था. मेरे माता-पिता नहीं चाहते थे कि मैं किसी सामाजिक बदलाव में अपने पैसे लगाऊं. हालात इतने ख़राब हो गए कि मेरी मां ने मुझसे बातचीत बंद कर दी. बात यहीं ख़त्म नहीं हुई. गांववाले भी मुझे पागल कहने लगे क्योंकि बिना किसी लाभ की आशा के इतना बड़ा निवेश करने जा रहा था.

-प्रकाश पांडे

इन परेशानियों से प्रकाश ने अपना निर्णय नहीं बदला. प्रकाश ने 2017 में अपने गांव के घर को ‘पाठशाला’ में बदल दिया. दिल्ली में नौकरी और स्कूल बनाने के सपने के बीच बैलेंस बनाते हुए अपने 90 दिन की छुट्टी का सही से उपयोग किया प्रकाश ने. जब भी उन्हें छुट्टी मिलती, वो गांव जाकर काम का जायज़ा लेते.


कुछ दिनों बाद स्कूल तैयार हो गया. बेंच, ब्लैकबोर्ड, लाइट, पंखे और बिजली के साथ. प्रकाश के स्कूल में कंप्यूटर लैब भी है. 

इसके बाद अगला काम था ढंग का टीचिंग स्टाफ़ ढूंढना. प्रकाश ने पाया कि उनके गांव में कई महिलाएं हैं जो 12वीं पास हैं, मगर परिवार के कारण कहीं काम नहीं कर रही हैं. प्रकाश के शब्दों में,  

मैं अपने गांव में पढ़ी-लिखी लड़कियों की इतनी तादाद देखकर दंग रह गया. हालांकि उनकी शिक्षा भी पूरी नहीं थी, उन्होंने भी कभी कंप्यूटर को हाथ नहीं लगाया था. 

-प्रकाश पांडे

दोस्तों के साथ मिलकर प्रकाश ने उन लड़िकयों को मनाया और उन्हें ट्रेनिंग दी. ट्रेनिंग में उन्हें गणित, विज्ञान, इतिहास, समाजशास्त्र, कंप्यूटर की शिक्षा दी गई. 6 महीने में 22 महिलाओं को ट्रेन कर लिया गया.


अब आख़िरी काम था, बच्चों को प्रवेश दिलाना. प्रकाश ने सर्वे किया और पाया कि घर के बड़ों की वजह से बच्चे स्कूल छोड़ देते हैं. प्रकाश के शब्दों में,  

हमारे गांव के ज़्यादातर लोग खेती-बाड़ी करते हैं और माता-पिता का लक्ष्य है बच्चों को कमाऊ बनाना, इसके लिए भले उन्हें कोई भी काम क्यों न करना पड़े. शिक्षा उनके लिए बिल्कुल भी ज़रूरी नहीं लगती.

-प्रकाश पांडे

टीचिंग स्टाफ़ के साथ मिलकर प्रकाश ने गांव के घर-घर में गए और लोगों को बच्चों को स्कूल भेजने के लिए मनाया. पर सिर्फ़ 25 बच्चे ही पढ़ने आए. इसका कारण प्रकाश को बाद में पता चला. कई माता-पिता स्कूल की फ़ीस के बारे में सोचकर बच्चों को नहीं भेज रहे थे. प्रकाश के शब्दों में, 

मैंने उन्हीं बच्चों से फ़ीस लेने का निर्णय लिया जो फ़ीस दे सकते हैं.

-प्रकाश पांडे

प्रकाश ने ‘स्कूल चलो’ कैंपेन भी शुरू किया. इस कैंपेन के तहत उन्होंने 500 स्कूल किट्स(किताबें, कॉपी आदि) बांटे. कैंपेन सफ़ल रहा और स्कूल में आने वाले बच्चों की संख्या भी बढ़ने लगी.


स्कूल को खुले 18 महीने हो गए और आज वहां कक्षा 1 से 8 तक 400 बच्चे पढ़ते हैं. सरकार ने प्रकाश को 10वीं तक शिक्षा देने की परमीशन दी है, पर जगह के अभाव में प्रकाश के स्कूल में 8वीं तक ही क्लास चलती है. 

प्रकाश ने स्कूल के बाद 8-10वीं तक की लड़कियों के लिए कंप्यूटर क्लास शुरू की है. 

स्कूल के टिचर्स को भी वक़्त पर पगार मिल जाती है और प्रकाश स्कूल के ख़र्चे अपनी बचत के पैसों से निकालते हैं. 

प्रकाश भारतीय वायुसेना की नौकरी छोड़कर, ऐसे ही और स्कूल खोलने का सपना देख रहे हैं.