हर किसी की लाइफ़ में ऐसी सिचुएशन ज़रूर आती है जब वो हालात के सामने घुटने टेक देते हैं. वो अंदर से इतने टूट जाते हैं कि सपने देखना ही छोड़ देते हैं. लेकिन अगर आप उम्मीद का दामन थाम कर आगे बढ़ने की कोशिश करते हैं, तो उम्मीद भी आपको निराश नहीं करती.

16 साल की उम्र में अपने पैर खोने के बाद, साल 2002 में World Cup Badminton For Disabled जीतने वाले इस शख़्स की कहानी भी हमें यही सीख देती है. Humans of Bombay ने उम्मीदों और प्रेरणा से भरी इनकी ये कहानी अपने सोशल मीडिया अकाउंट पर शेयर की. आइए जानते हैं इनकी प्रेरणादायक स्टोरी के बारे में इन्हीं की जुबानी-

Humans of bombay

क्रिकेटर बनना चाहते थे

मुझे क्रिटर बनना था. इसलिए मैं मुंबई के शिवाजी पार्क में घंटों क्रिकेट की प्रैक्टिस करता था. मैंने Harris Shield Tournament में हिस्सा भी लिया था. लेकिन नियती में शायद कुछ और ही लिखा था. जब मैं 16 साल का था तब मेरे साथ एक हादसा हुआ. मैं रेलवे प्लेटफॉर्म से गिर गया और ट्रेन की चपेट में आ गया. तब डॉक्टर्स ने जान बचाने के लिए मेरी टांगे काट दी. इसी के साथ ही क्रिकेटर बनने का सपना भी चकनाचूर हो गया.

मन में आत्महत्या करने का भी विचार आया था

‘इसके बाद जो हुआ वो और भी बुरा था. मेरे रिश्तेदारों ने दबे मुंह ये कहना शुरू कर दिया था कि इससे अच्छा तो मौत थी. मैंन सुसाइड करने के बारे में भी सोचा, लेकिन अपने माता-पिता का ख़्याल आने के बाद अपने दिमाग़ से ये बात निकाल दी. क्योंकि उनका मैं इकलौता बेटा था और मेरे बाद उनका कौन ख़्याल रखता.’

यहां दिखाई दी उम्मीद की किरण

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एक बात जो मुझे अंदर से खाए जा रही थी वो ये कि अब पूरी ज़िंदगी मैं उनपर बोझ बनकर जिऊंगा. फिर एक दिन मेरे पेरेंट्स ने मुझे फ़िजियोथेरेपी क्लास जॉइन करने को कहा. ये हॉस्पिटल मेरे लिए किसी चमत्कार से कम न था, यहां मैंने देखा कि मेरे जैसे ही तमाम लोग यहां बहुत ख़ुश हैं. इसने मेरे अंदर की आशा की किरण को तेज़ करने का काम किया. मैंने सोचा जब ये लोग ख़ुश रह सकते हैं तो मैं क्यों नहीं.

स्पोर्ट्समैन बनने का फिर से देखा सपना

The Bridge

‘मैंने हॉस्पिटल से आने के बाद एक स्टोर खोल लिया और अपनी लाइफ़ में आगे बढ़ गया. एक दिन किसी ने मुझे व्हीलचेयर रेसिंग के बारे में बताया. मेरे अंदर का एथलीट जाग गया और मैंने तय किया कि मैं इसमें पार्टिसिपेट करूंगा. मैंने प्रैक्टिस शुरू की और तब तक करता रहा जब तक मैं इस प्रतियोगिता में हिस्सा लेने लायक नहीं बन गया.’

बेस्ट फ़्रेंड से हुई मुलाकात

इस प्रतियोगिता में मेरी मुलाकात मनोज से हुई. उन्होंने बताया कि कैसे पोलियो की वजह से वो तैराक बनने का सपना पूरा नहीं कर पाए. उन्होंने भी मेरी तरह लाइफ़ में बहुत से बुरे हालात देखे थे. मैं ये प्रतियोगिता तो हार गया, लेकिन ज़िंदगी ने मेरे बेस्ट फ्रे़ंड से मुझे मिला दिया. इसके बाद से हम साथ में ही ट्रेनिंग करने लगे. मुझे सफ़र करने से डर लगता था, लेकिन मनोज ने मेरा हौसला बढ़ाया.

मेहनत का मिला फल

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‘हम हर रोज़ सीएसटी स्टेशन पर मिलते और ट्रेनिंग के लिए जाते. मनोज की पत्नी मेरे लिये भी एक डब्बा(लंचबॉक्स) भेजती थीं. ये हमारी लाइफ़ थी और इसे हम पूरी तरह जी रहे थे. फिर हमने बैडमिंटन डबल्स के मुकाबले में हिस्सा लेने का इरादा किया. साल 2002 में हमने World Cup Badminton For Disabled का ख़िताब अपने नाम किया. तब किसी ने भी नहीं सोचा था कि हम जीत जाएंगे, क्योंकि हमारे पास उम्दा क्वालिटी की स्पोर्ट्स व्हीलचेयर भी नहीं थीं. ये हमारी कड़ी मेहनत का ही फल था.’

मैराथॉन में भी गाड़े झंडे

साल 2004 में हमने मुंबई मैराथॉन में भी हिस्सा लिया था. तब हमने इसे साथ में फ़िनिश किया था. इसके बाद हम बहुत ही पॉपुलर हो गए . बीते 15 सालों में हमने एक भी रेस नहीं गंवाई.जब लोग पूछते हैं कि हमने ये कैसे किया तब हम साल 2005 का अपना वो मैच याद करते हैं, जिसमें हमारा सामना अनबीटेबल टीम से हुआ था. बिना किसी प्रोफ़ेशनल ट्रेनिंग के और बिना अच्छी क्वालिटी वाली व्हीलचेयर के हम बस 1 पॉइंट से जीते थे. ये हमारी दृढ़ इच्छाशक्ति का नतीजा था.
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‘लोग कहते थे कि ये खेल हम जैसों के लिए नहीं है, क्योंकि हम तो चल भी नहीं सकते. लेकिन उन्हें शायद ये पता नहीं था हम चलने के लिए नहीं आसमान में उड़ने के लिए बने थे.’

है न इनकी कहानी दृढ़ इच्छाशक्ति की मिसाल. इसमें मुश्किलों में साथ देने वाला दोस्त भी है और अच्छा स्पोर्ट्समैन बनने की प्रेरणा भी.