आज मैं पीरियड्स के टॉपिक पर खुल कर बात सकती हूं. सेक्स पर भी बात करने में मुझे कोई दिक्कत नहीं. मैं लिव-इन-रिलेशन में भी रह सकती हूं, बशर्ते मेरा पार्टनर उस लायक होना चाहिए. आज मैं जो सोचती हूं उसके साथ खड़ी हो सकती हूं. हालांकि अब भी ऐसे लोगों की कमी नहीं, जिन्हें मेरे बोलने या लिखने संस्कारों के ख़राब होने का ख़तरा है, पर मैं जो हूं, सो हूं.

ये सब सिर्फ़ मैं ही नहीं, बल्कि मेरी जैसी न जाने कितनी ही लड़कियां बड़ी ही आसानी और बेबाकी के साथ ये कह सकती हैं कि ‘मुझे इस बात का कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि इससे कोई मेरे बारे में क्या सोचता है?’ आज मैं या मेरी जैसी लड़कियां अगर ये सब कह पा रही हैं, तो इसके पीछे सिर्फ़ एक शख़्स का हाथ है, जिसका नाम था इस्मत चुगताई.

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ये इस्मत आपा ही थीं, जो मेरी जैसी लड़कियों की कहानियों को पर्दे से निकाल कर समाज के सामने बेपर्दा करती थीं. फ्रेंच क्रांति के बाद भले ही महिलाओं की दबी-कुचली आवाज़ को उठाने का श्रेय फ्रेंच लेखिका Simone de Beauvoir को जाता है, पर हिंदुस्तान में फेमिनिस्ट का ये झंडा इस्मत आपा ने बुलंद किया, जिनकी कहानियों ने पुरुष प्रधान समाज पर ऐसा प्रहार किया कि इस्मत आपा को लाहौर कोर्ट के कटघरे में खड़ा होना पड़ा.

आज फेमिनिस्ट का मतलब भले ही लैपटॉप और मोबाइल स्क्रीन पर फ़ेसबुक स्टेटस अपलोड करते हुए मर्दों को गरियाना बन गया हो, पर इस्मत आपा ने जिस Feminism की नींव रखी थी, वो लिहाफ़ के अंदर की हलचल को मन के लिफ़ाफ़े को दुनिया के सामने खोलता था.

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खुद इस्मत आपा के शब्दों में कहूं, तो ‘मेरी क़लम कोई फ़ेमिनिस्ट क़लम नहीं है, ये तो बस जो देखती है उसे लिखती है. मेरा तो ये मानना है कि औरत आज जिन हालातों में है उसके लिए वो खुद ज़िम्मेदार है. जो औरत खुद अपने लिए नहीं लड़ सकती वो क्या किसी के लिए ख़ाक लड़ेगी.’ 

आज के हालातों में भी इस्मत आपा का ज़िक्र इसलिए भी प्रासंगिक नज़र आता है क्योंकि मैं और मुझ जैसी लड़कियां आज जहां खड़ी हैं उसकी नींव इस्मत आपा ने ही रखी थी.