कनक (गेंहू) चमकने लगती है, ट्यूब्वेल बंद हो जाते हैं. किसान के चेहरे पर कनक की तरह ही सुनहरी चमक आने लगती है. कुछ अपने खेतों में हड़ंबे लगाते हैं और कुछ कंपनाईन से कनक कटवाते हैं. ट्रैक्टर-ट्राली सड़क पर धूल उड़ाते-उड़ाते निकलते. ड्राइवरों ने चेहरे पर कपड़ा बांध रखा है. इसी के साथ मंडियों में आढ़तियों का इंतज़ार खत्म हो जाता. इस बेकरारी के खत्म होते ही बैसाखी का आगाज़ होता.
कहां से हुआ है किस्सा शुरू?
ये किस्सा शुरू होता है सर्दी में गिरी ओस की बूंदों से जो अपने सीने में समाई ठंडक को कनक के बीजों में उतार देती हैं. मानो एक जीवन कई जिंदड़ियों (जिंदगानी) के लिए न्यौछावर हो रहा हो.
नहरी पानी को अपनी जड़ों में बसाये, नमी भरी ज़मीन में जनता की भूख और किसानों के अरमानों का रूप ले चुकी कनक धीरे-धीरे बड़ी होने लगती है. ये दास्तां हर बैसाखी से दो माह पहले की है, उस समय किसान के चेहरे पर बस पसीना और उम्मीदें बसती हैं.
जब हम लिखते थे बैसाखी पर लेख
बचपन में बैसाखी पर लेख लिखने को कहा जाता था, मैं रटा-रटाया लिख भी दिया करता था. अपने स्कूल की किताबों में बेरी के पेड़ के नीचे झूला झलती लड़कियों के चित्र, खेतों में भंगाड़ा करते पगड़ी बांधे किसानों की तस्वीरें देखकर मेरा मन मोहित हो जाता. मुझे पता चला कि 13 अप्रैल को बैसाखी पर्व है और इस दिन स्कूल की छुट्टी होगी लेकिन मेरे स्कूल में बैसाखी की छु्ट्टी नहीं हुआ करती थी…
जलियांवाला बाग बनता था छुट्टी का सबब
दरअसल जब कनक बीजी जाती है और जिस वक़्त फसल कटती है, इन दोनों समय के दौरान बाज़ार बिलकुल मंदे होते हैं. किसानों को खेतों में काम होता है और मजदूरों को भी वहीं काम मिल जाता है, लेकिन जो लोग-बाग दुकानदारी करते हैं वो खाली बैठे होते हैं. मक्खियां मारने वाली कहावत इन दुकानदारों के लिए कतई नहीं बनी है. दरअसल ये लोग खाली होने के बाद भी खाली नहीं रहते. ये कहानियां सुनाते हैं, मोहल्ले में वो तूत (शहतूत) का पेड़ आज भी इस बात की गवाही देता है कि ये दुकानदार कभी खाली नहीं बैठते. ये उसके नीचे चादर बिछा कर ताश की फैंटी मारते हैं. और इसी वक़्त मेरे स्कूल की छुट्टी होती थी.
वो तूत (शहतूत) का पेड़
एक ऐसी ही दोपहर थी, बैसाखी से ठीक दो-तीन दिन पहले की बात होगी. छुट्टी को लेकर मैं बहुत उत्सुक हुआ करता था. स्कूल से घर आते वक़्त रस्ते में ये तूत का पेड़ था, वही पेड़ जिसके नीचे ताश चलती थी. मैं अपने दोस्तों के साथ, कंधें पर बसता टांगे तूत तोड़ने लगता, हम सब पत्थर मारते. हालांकि आज मेरे ऑफ़िस के पास भी एक तूत का पेड़ है और मेरा हाथ अब वहां आसानी से पहुंच जाता है लेकिन बचपन में जो बेचैनी हुआ करती थी वो आज शायद कहीं छुप गई है. हम तूतों को पत्थर मारकर तोड़ते और ताश फैंटों से डांट भी खाते. एक रोज़ वहीं मैंने सुना था कि, “जंगीर, छु्ट्टी बैसाखी दी नहीं, बली छुट्टी तां जलियांवाले बाग दी हुंदी है”
बैसाखी से एक दिन पहले स्कूल में लेक्चर दिया गया. किसानों का ज़िक्र करते ही हमारे सर ने जलियांवाला बाग हत्याकांड का ज़िक्र किया. बैसाखी मेरे लिए कहीं पीछे सी छूट गई. और जलियांवाला बाग आगे आने लगा. उस दिन वट (खेतों के बीच बनी पगडंडी) से घर जाते जाते कई सवाल उठने लगे. रास्ते में कई कुत्तों को बेमतलब मैंने पत्थरों से मारा भी. आज मैंने तूत नहीं तोड़े, सीधे घर जाकर खाना खाया और मां से पूछा कि ये जलियांवाला बाग क्या है?
मां ने बताया जलियांवाला बाग
मां ने बताया कि एक अंग्रेज़ अफसर ने जलियांवाला बाग हत्याकांड करवाया था. “बहुत ही गोलियां चली थी पुत.” मां ने ‘शहीद’ फ़िल्म देखी थी, मनोज कुमार हीरो थे उसमें. उसका गाना भी मुझे याद करवाया. बाद में मैंने स्कूल में कई बार वो गाना गाया भी. आज भी दफ्तर पर बैठे कानों में हैडफ़ोन लगाया ये गाना सुन रहा हूं.
इस चोले को पहन शिवाजी खेल अपनी जान पर
इसे पहन झांसी की रानी मिट गई अपनी आन पर
आज इसी को पहन के निकला, पहन के निकला
आज इसी को पहन के निकला हम मस्तों का टोला
माय रंग दे बसंती चोला.
हत्याकांड वाले दिन का सवेरा
मेरे सपने में रात को जलियांवाल बाग आया था. मुझे वो बेरी के बाग की मानिंद लग रहा था, वही बेरी का बाग जो नहर के किनारे था. नहर में नहाने के बाद लंच बेरों का ही हुआ करता था. बेर लूटा हुआ खजाना हुआ करते थे जिसपर सिर्फ़ उसी लुटेरे का हक़ हुआ करता था, जो इसे लूटता था. सुबह उठते ही मैं गुरूद्वारों में गया, यहां अरदास के बीच में बाबा जी वीर भगत सिंह और सरदार ऊधम सिंह की बातें करने लगते. मुझे और मेरे दोस्तों को सिर्फ़ कढ़ा (हलवे) से मतलब हुआ करता था. गुरूदवारे पर कई लोग अपनी अरदास (मनोकामना) करवाने के लिए आते थे और कईयों की अरदासें पूरी हो चुकी हैं. वो गुरूदवारों पर लंगर करवाते और हम परशादे शकते (खाना खाते).
ज़ेहन में आज पक रहा है जलियांवाला बाग हत्याकांड
धीरे-धीरे पता चलने लगा कि जलियांवाला बाग में बहुत लोगों की हत्या हुई थी. किसान अपने नेताओं का भाषण सुनने के लिए आये थे. जनरल डायर ने अपने 90 सैनिकों के साथ लगभग 1000 से ज़्यादा लोगों को मरवा दिया. 2000 लोग घायल हुए थे. मां ने और तूत के पेड़ के नीचे बैठे लोगों ने जितना बताया था मै उसी में आंसू बहा लेता था. कनक कट चुकी थी. गुरूदवारों का लाऊड स्पीकर बंद हो जाता था. मेरा स्कूल जाना फिर से शुरू हो जाता था. दोपहर में खाली ज़मीन पर लू चलती है थोड़ी-थोड़ी सी मिट्टी उड़ती फिर बैठ जाती, शायद 13 अप्रैल 1919 को जलियांवाले बाग में भी कुछ समय तक ऐसी ही धूल उड़ी होगी.
Feature Image Source: Journeymart