दिल्ली की जामा मस्जिद सिर्फ़ भारत में ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया मशहूर है. लेकिन क्या आपको इस ऐतिहासिक मस्जिद का वास्तविक नाम मालूम है? नहीं न? जामा मस्जिद का असली नाम ‘मस्जिद-ए-जहां नुमा’ है. इसका अर्थ होता है – मस्जिद जो पूरी दुनिया का एक नज़रिया दे.

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इस मस्जिद के मैदान में हज़ारों लोग एक साथ नमाज़ पढ़ सकते हैं. एक साथ हज़ारों लोग जमा होने के कारण ही लोगों ने इसे जामी मस्जिद का नाम दिया था, जो आगे चलकर जुमा मस्जिद हो गया. जुमा मतलब जहां जुमे की नमाज़ होती है. फिर समय के साथ इसका नाम ‘जामा मस्जिद’ हो गया.

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कब और किसने बनवाया 

दिल्ली की मशहूर जामा मस्जिद को मुगल सम्राट शाहजहां ने सन 1656 में बनवाया था. इस ऐतिहासिक मस्जिद का निर्माण कार्य सदाउल्लाह ख़ान की देखरेख में किया गया था, जो उस वक्त शाहजहां शासन में वज़ीर (प्रधानमंत्री) हुआ करते थे. 6 साल में बनकर तैयार हुई इस मस्जिद को बनाने में क़रीब 10 लाख रुपये खर्च हुए थे. इतिहासकारों की मानें तो इस मस्जिद को 5 हज़ार से अधिक मज़दूरों ने मिलकर बनाया था.

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इस मस्जिद के इमाम क्यों होते हैं ‘बुख़ारी’ 

बताया जाता है कि जब मस्जिद बनकर तैयार हुई तो बादशाह इसके इमाम को लेकर पशोपेश में थे. वो चाहते थे कि इस ख़ास मस्जिद के इमाम भी खास हों. काफी समय बाद उज़्बेकिस्तान के एक छोटे से शहर बुख़ारा में जाकर ये तालाश ख़त्म हुई. इमाम के लिए जो नाम सामने आया वो था सैय्यद अब्दुल गफ़ूर शाह का.

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सैय्यद अब्दुल गफ़ूर शाह की इमामी में 24 जुलाई, 1656 को जामा मस्जिद में पहली बार नमाज़ अदा की गई. इस दिन दिल्ली की अवाम के साथ शाहजहां और उनके सभी दरबारियों ने पहली बार जामा मस्जिद में नमाज़ अदा की. मुगल बादशाह ने इमाम अब्दुल गफ़ूर को इमाम-ए-सल्तनत की पदवी दी. उसके बाद से उनका खानदान ही इस मस्जिद की इमामत करता चला आ रहा है. चूंकि सैय्यद अब्दुल गफू़र शाह बुखारा से थे, इसलिए उनके नाम के साथ बुखारी लगने लगा जो आज बदस्तूर जारी है.

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इस मस्जिद के बनने के पीछे है दिलचस्प तथ्य 

इतिहासकारों का कहना है कि मुगल सम्राट शाहजहां ने एक आलिशान मस्जिद का सपना देखा था, ताकि हज़ारों लोग वहां एक साथ जुमे की नमाज पढ़ सकें. इसके बाद उन्होंने पुरानी दिल्ली स्थित लालकिले के पास ही अपने इस सपने को ‘मस्जिद-ए-जहां नुमा’ के रूप में पूरा किया. जामा मस्जिद के पूर्वी द्वार के बारे में कहा जाता है कि मुगल सम्राट शाहजहां इसी द्वार का प्रयोग किया करते थे.

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क्या ख़ासियत है इस मस्जिद की? 

इस ऐतिहासिक मस्जिद के बरामदे में एक साथ करीब 25 हज़ार लोग नमाज पढ़ सकते हैं. इस मस्जिद में प्रवेश के लिए 3 बड़े दरवाजे हैं. इसका पूर्वी द्वार केवल शुक्रवार को ही खुलता है. इसमें दो बड़ी मीनारें भी हैं जिनकी ऊंचाई 40 मीटर है. इस मस्जिद में 11 मेहराब हैं. मस्जिद के ऊपर बने गुंबदों को सफ़ेद और काले संगमर्मर से सजाया गया है जो निज़ामुद्दीन दरगाह की याद दिलाते हैं.

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जामा मस्जिद पर हुए कई बार हमले 

इतिहासकार बताते हैं कि सन 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में जीत हासिल करने के बाद अंग्रेज़ों ने जामा मस्जिद पर कब्ज़ा कर अपने सैनिकों का पहरा लगा दिया था. इस दौरान अंग्रेज़ दिल्ली के लोगों को सज़ा देने के मकसद से इस मस्जिद को तोड़ना चाहते थे, लेकिन देशभर में विरोध के बाद अंग्रेज़ों को झुकना पड़ा था.

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14 अप्रैल, 2006 को जामा मस्जिद में शुक्रवार को जुमे की नमाज़ के ठीक बाद लगातार दो बम धमाके हुए. इन धमाकों में 9 लोग घायल हुए थे. हालांकि, इस दौरान मस्जिद की इमारतों को कोई नुकसान नहीं हुआ. 15 सितंबर, 2010 को एक बार फिर से इस ऐतिहासिक मस्जिद को निशाना बनाने की कोशिश की गई थी. इस दौरान दो बंदूकधारियों ने मस्जिद के गेट नंबर- 3 पर खड़ी एक बस पर फ़ायरिंग की थी. इसमें दो ताइवानी पर्यटक घायल हो गए थे.

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इस मस्जिद को लेकर कहा जाता है कि साल 1948 में हैदराबाद के आख़िरी निज़ाम असफ़ जाह VII से मस्जिद के एक चौथाई हिस्से की मरम्मत के लिए 75 हज़ार रुपये मांगे गए थे. लेकिन निज़ाम ने ख़ुश होकर 3 लाख रुपये दे दिए ताकि पूरी मस्जिद की काया पलट हो सके.