उनके माता-पिता ने उनका नाम जयप्रकाश नारायण रखा था. कौन जानता था कि बचपन में बेहद शांत और गंभीर रहने वाला यह बालक एक दिन परतंत्र देश और फिर आज़ाद भारत व भारतीय लोकतंत्र के सबसे काले इतिहास के नायक के तौर पर उभरेगा, और पूरी दुनिया उसे लोकनायक के नाम से जानेगी.

लोकनायक जयप्रकाश नारायण का जन्म 11 अक्टूबर, 1902 को हुआ था. उनका अधिकांश बचपन बलिया जिले के सिताबदियारा गांव में ही बीता. गौरतलब है कि उनका गांव उत्तर प्रदेश व बिहार प्रांत के सीमा पर है जिसके श्रेय हेतु दोनों प्रांत जद्दोजहद करते रहते हैं. जयप्रकाश नारायण को लोग उनकी सहूलियत के हिसाब से उनके उपनाम “जेपी” से पुकारते थे.

महात्मा गांधी ने उन्हें लेकर कहा था: “ वे कोई साधारण कार्यकर्ता नहीं हैं. वे समाजवाद के आधिकारिक ज्ञाता हैं. यह कहा जा सकता है कि पश्चिमी समाजवाद के बारे में वे जो नहीं जानते हैं, भारत में दूसरा कोई भी नहीं जानता. वे एक सुन्दर योद्धा हैं. उन्होंने अपने देश की मुक्ति के लिए सब कुछ त्याग कर दिया है. वे अथक परिश्रमी हैं. उनकी कष्टसहन की क्षमता से अधिक किसी की क्षमता नहीं हो सकती.”

उनके काबिलियत की गूंज और प्रसिद्धि देश में इस कदर तारी थी कि आज़ाद भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने पहले आम चुनाव में उनकी विपक्षी पार्टी से चुनाव लड़कर हारने के बाद भी सन् 1953 में “जेपी” और उनके सहयोगियों को सरकार में सम्मिलित होने के लिए आमंत्रित किया था. नेहरू नहीं वरन् पूरा देश जेपी को नेहरू औऱ देश का उत्तराधिकारी मानता था. हालांकि जयप्रकाश उनसे अलहदा सोच रखते थे और सिर्फ़ सरकार में शामिल हो जाना उनका कतई मकसद नहीं था.

समाजवाद जयप्रकाश के लिए ज़िंदगी जीने का तौर तरीका था. वे मानते थे कि समाजवाद नब्बे प्रतिशत व्यवहार और दस प्रतिशत सिद्धान्त है. संक्षेप में कहें तो वे गांधी के दैनिक कार्यकलाप व ज़िंदगी जीने के तौर-तरीकों को ख़ुद के लिए भी आवश्यक मानते थे.एक देश के दूसरे देश से आर्थिक व सामरिक संबंधों के बारे में उनका मानना था कि एक समाजवादी देश से दूसरे समाजवादी देश का संबंध समानता और पारस्परिक सहायता पर आधारित होना चाहिए. उनका मानना था कि यदि तराजू के पलड़े को झुकना ही हो तो वह पिछड़े और अधिक कमजोर देशों के पक्ष में झुका होना चाहिए न कि अधिक शक्तिशाली देशों के पक्ष में.

एक ऐसे समय में जब पूरा देश उनके प्रति आशान्वित था कि वे आगे बढ़ कर देश के राजनीति की बागडोर संभालेंगे ठीक उसी समय वे “भूदान आंदोलन” के प्रणेता विनोबा भावे के साथ पूरे देश के दौरे पर निकल जाते हैं. भूदान उनके लिए चुनावी राजनीति, सत्ता व दल की राजनीति से ऊपर की चीज़ थी. उनकी नज़र में “भूदान” दलों, चुनावों, संसदों एवं सरकारों की राजनीति से अलग जनता की राजनीति थी. जयप्रकाश के अनुसार भूदान और सर्वोदय लोकतांत्रिक समाजवाद का उच्चतर तथा यथार्थतर रूप था.

सार्वजनिक ज़िंदगी के अलावा वे निजी ज़िंदगी में भी शुचिता व साफ़गोई की ज़िंदगी जीना पसंद करते थे. गांधी के प्रभाव व सानिध्य में आकर जब उनकी पत्नी प्रभावती ने ब्रम्हचर्य की शपथ ले ली तो जयप्रकाश ने उनकी पत्नी का भरपूर साथ दिया. अब मेरी नज़र में तो ऐसे विरले ही होंगे जो दूसरों के व्यक्तिगत चुनाव को भी इतनी तवज्जो व तरजीह देते हों, मगर शायद इन्हीं वजहों से तो जयप्रकाश आज भी आम जनता के नायक हैं.

ऐसे समय में जब वे सक्रिय राजनीति से स्वास्थ्य कारणों और किन्हीं अपरिहार्य कारणों से सन्यास ले चुके थे, और कांग्रेस पार्टी और देश की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल लागू कर दिया. अब ये किस प्रकार संभव था कि देश की आज़ादी में सक्रिय भूमिका अदा करने वाला नेता मूकदर्शक बना रहता. उन्होंने देश भर के छात्रों और ख़ास तौर पर बिहार प्रदेश के छात्रों के बुलावे पर आपातकाल और इंदिरा गांधी के ख़िलाफ मोर्चा खोल दिया जिसे बाद में “संपूर्ण क्रांति” का नाम दिया गया. संपूर्ण क्रांति कोई एकल कार्यक्रम नहीं था बल्कि इसमें सात क्रांतियां शामिल थीं – राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, बौद्धिक, शैक्षणिक व आध्यात्मिक क्रांति. इन सातों क्रांतियों का मेल संपूर्ण क्रांति थी. संपूर्ण क्रांति की तपिश इतनी भयानक थी कि केन्द्र में अपराजेय समझी जाने वाली कांग्रेस पार्टी को देश की सत्ता से हाथ धोना पड़ गया था.

कांग्रेस को देश की सत्ता से च्युत करने के बाद और जनता पार्टी के नेतृत्व द्वारा सरकार में अहम पदों के बंटवारे और लड़ाई से आहत जेपी कांग्रेस के उस चुनाव में बुरी तरह से हार जाने के बाद उनकी कट्टर दुश्मन मान ली गई इंदिरा गांधी को उनके दरवाज़े पर ढाढ़स बंधा रहे थे. अद्भुत व्यक्तित्व की प्रतिमूर्ति को ऐसे ही पूरी दुनिया आज थोड़े न नमन करती है, और हम उनके बारे में पढ़-लिख और सुन कर ही ख़ुद को सौभाग्यवान मानते हैं और ऐसा मानते हैं कि हम उनकी ज़िंदगी से प्रेरणा लेते हुए यदि उनके चरणों की धूल भी हो पाए तो ख़ुद को धन्य समझेंगे.