लद्दाख की गलवान घाटी में 15 जून को हुई भारत-चीन के बीच हिंसक झड़प हुई. कई भारतीयों ने 1975 के बाद से पहली बार पूर्वी लद्दाख में गलवान नदी घाटी के बारे में सुना होगा.  

यह जगह अक्साई चीन इलाक़े में आती है जिस पर चीन बीते 70 साल से नज़रें लगाए बैठा है. ये घाटी ज़मीन से क़रीब 14 हज़ार फ़ीट की ऊंचाई पर है और माइनस 20 डिग्री तक तापमान गिर जाता है.  

घाटी स्वयं गलवान नदी से अपना नाम प्राप्त करती है, जो सिंधु नदी की एक महत्वपूर्ण सहायक नदी, श्योक नदी में शामिल होने के लिए अक्साई चिन और पूर्वी लद्दाख के माध्यम से काराकोरम रेंज में निकलती है.  

जिस गलवान घाटी का ज़िक्र आज हर जगह हो रहा है उसका नाम, लद्दाख के रहने वाले चरवाहे ग़ुलाम रसूल गलवान के नाम पर रखा गया था.  

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कैसे मिला नदी और घाटी को ये नाम

1878 के आस-पास जन्मे रसूल गलवान का परिवार काफ़ी ग़रीब था. गांव वाले घाटी के प्रमुख मार्गों पर आने वाले यात्रियों को खाने से लेकर हर चीज़ की मदद दिया करते थे.  

परिवार की आर्थिक तंगी को देखते हुए रसूल ने महज़ 12 साल की उम्र में ही काम करना शुरू कर दिया था. वो इलाक़े में आने वाले यूरोपी यात्रियों के साथ गाइड के तौर पर जाने लगे. उन्होंने 1889 में एक कश्मीरी व्यापारी के लिए सेवक के रूप में शुरुआत की. 

ग़ुलाम रसूल गलवान ने कई मशहूर लोगों के साथ काम किया. जैसे मेजर गॉडविन ऑस्टिन. वो व्यक्ति, जिसने काराकोरम पर्वत की ऊंचाई नापी थी. उनके नाम पर ही इसे माउंट गॉडविन ऑस्टिन भी कहा जाता है. 1890 से लेकर 1896 तक वो सर फ्रांसिस यंगहसबैंड नाम के डिप्लोमैट के साथ थे, जिन्होंने ब्रिटेन और तिब्बत के बीच 1904 का समझौता तैयार किया था. ये तिब्बती पठार, पामीर पहाड़ और मध्य एशिया के रेगिस्तानों की खोज में निकले थे. इसमें गलवान ने उनकी बहुत मदद की. 

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‘गलवान नुल्लाह’ या गलवान नदी जैसा कि आज हम जानते हैं, वो उस समय 1892 में चार्ल्स मुर्रे के साथ रसूल की पामीर पहाड़ियों को हुई एक यात्रा के दौरान पड़ा था. चार्ल्स मुर्रे, चार्ल्स डनमोर (आयरलैंड में एक जगह) के सातवें अर्ल (राजा की बराबरी वाला पद) थे. जब वह चार्ल्स के साथ खोज पर निकले थे तब उनकी उम्र महज़ 14 वर्ष की थी. 

इस यात्रा के दौरान उनका काफ़िला एक जगह अटक गया. वहां सिर्फ ऊंचे पहाड़ और खड़ी खाइयां थीं. उनके बीच से नदी बह रही थी. किसी को समझ नहीं आ रहा था कि यहां से कैसे निकला जाए. तब 14 साल के रसूल गलवान ने अपनी समझदारी से एक आसान रास्ता ढूंढ निकाला, और वहां से काफिले को सुरक्षित निकाल ले गए. 

लद्दाखी इतिहासकार अब्दुल गनी शेख़ के मुताबिक़, गलवान की ये चतुराई देखकर चार्ल्स बहुत प्रभावित हुए और गलवान द्वारा खोजे गए इस नए रास्ते का नाम ‘गलवान नदी’ रख दिया, जिससे इस घाटी को भी ‘गलवान’ नाम पड़ा.  

यह एक महत्वपूर्ण विकास था क्योंकि आम तौर पर पश्चिमी उपनिवेशवाद किसी प्रमुख भौगोलिक विशेषता को अपने नाम पर ही रखते हैं.  

1925 में उनकी मौत हुई. लेकिन उससे पहले वो एक ऐसी किताब लिख गए, जिसमें उन्होंने अपने सभी यात्राओं का वर्णन विस्तार में किया है. 

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इस किताब का नाम है ‘सर्वेन्ट ऑफ़ साहिब्स’. इसकी भूमिका सर फ़्रांसेस यंगहसबैंड ने लिखी है, जिनके साथ घूमते हुए ग़ुलाम रसूल गलवान ने कई साल बिताए थे.  

इस किताब की ख़ासियत ये है कि ये ग़ुलाम रसूल की टूटी-फूटी अंग्रेजी में उनके यात्रा वृत्तांतों को बताती है. ग़ुलाम रसूल गलवान ने अपनी 35 साल की यात्राओं में अंग्रेज़ी, लद्दाखी, उर्दू, और तुर्की भाषाओं का इस्तेमाल सीख लिया था. बाद में वो लेह में ब्रिटिश कमिश्नर के मुख्य सहायक के पद तक भी पहुंचे.