उत्तर भारत की रामलीलाएं हर साल दशहरे के मौके पर हमेशा से ही लोगों को अपनी ओर आकर्षित करती आ रही हैं. अगर रामलीला की बात करें, तो दिल्ली की लव-कुश रामलीला और श्री रामलीला कमेटी की रामलीलाएं बेहद शानदार होती हैं. ये रामलीलाएं पिछले कई दशकों से इसी तरह खेली जा रही हैं. उत्तराखंड का कुमाऊं क्षेत्र भी अपनी पारंपरिक ‘कुमाऊंनी रामलीला’ के लिए बेहद प्रसिद्ध है. कुमाऊंनी रामलीलाएं बेहद शानदार होती हैं, ख़ासकर अल्मोड़ा ‘हुक्का क्लब’ की रामलीला का कोई जवाब ही नहीं है.

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आईये जानते हैं कैसी होती है ‘कुमाऊंनी रामलीला’ जो पिछले डेढ़ सौ सालों से खेली जा रही है?

‘कुमाऊंनी रामलीला’ का इतिहास

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उत्तराखंड का अल्मोड़ा ज़िला हमेशा से ही अपनी भव्य और शानदार रामलीलाओं के लिए जाना जाता है. यहां कई इलाक़ों में आज भी ‘रामलीला’ कुमाऊंनी भाषा में ही होती है. आज़ादी से पहले से ही इस क्षेत्र की इन रामलीलाओं को ‘कुमाऊंनी रामलीला’ के नाम से जाना जाता है. ‘कुमाऊंनी रामलीला’ का इतिहास लगभग डेढ़ सौ साल पुराना है. यूनेस्को ने भी इस रामलीला को दुनिया का सबसे लंबा ऑपेरा घोषित करके इसे ‘वर्ल्ड कल्चरल हेरिटेज’ लिस्ट में शामिल किया है. गाकर खेली जाने वाली इस रामलीला में संगीत सबसे महत्वपूर्ण पक्ष होता है. संगीत में ख़ासकर हारमोनियम और ढोलक या तबले का ही प्रयोग होता रहा है. दरअसल, ये रामलीला कुमाऊंनी लेखकों द्वारा लिखी जाने के बावजूद बृजभाषा में भी लिखी गई, ताकि उत्तर भारत के बड़े हिस्सों में आसानी से समझी जा सके.

नेक मकसद के लिए खेली जाती हैं ‘कुमाऊंनी रामलीला’

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‘कुमाऊंनी रामलीला’ की ख़ास बात ये है कि ये आर्थिक दृष्टि से पिछड़े कुमाऊं क्षेत्र में विकास के लिए खेली जाती है. इन रामलीलाओं में जो भी दान मिलता है उसे क्षेत्र की भलाई में ख़र्च किया जाता है. आज भी दिल्ली तथा उत्तर भारत के अन्य शहरों में रहने वाले कुमाऊंनी लोगों द्वारा हर साल आयोजित की जाने वाली ‘रामलीला’ से जो भी धनराशि इकट्ठी होती है, उसे पैतृक गांवों की समस्याओं, स्कूलों व अन्य सामाजिक कार्यों में लगाया जाता है.

कराची में भी खेली जाती थी ‘कुमाऊंनी रामलीला’

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‘कुमाऊंनी रामलीला’ आज़ादी से पहले से लेकर आज तक खेली जा रही हैं. उस समय दिल्ली, मुंबई, लखनऊ, मुरादाबाद, झांसी जैसे बड़े शहरों में रहने वाले कुमाऊंनी लोगों ने इस परम्परा को आगे बढ़ाने का काम किया. धीरे-धीरे ‘कुमाऊंनी रामलीला’ इतनी लोकप्रिय हुई कि देशभर में खेली जाने लगी. ‘कुमाऊंनी रामलीला’ से जुड़े पुराने लोग बताते हैं कि आज़ादी से पहले ये ‘रामलीला’ कुमाऊंनी लोगों द्वारा कराची में भी खेली जाती थी. हर साल कई लोग दशहरे के मौक़े पर कराची जाकर ‘रामलीला’ खेला करते थे.

ये ख़ासियत है ‘कुमाऊंनी रामलीला’ की

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अल्मोड़ा के लक्ष्मी भंडार उर्फ़ ‘हुक्का क्लब’ की लगभग एक शताब्दी पुरानी रामलीला का आकर्षण अन्य रामलीलाओं से कुछ अलग ही होता है. संगीत नौटंकी, नाच, जात्रा, रासलीला से सजी ‘कुमाऊंनी रामलीला’ में खासतौर से उन्हीं कलाकारों को अभिनेता के तौर पर लिया जाता है, जिन्हें गायन और संगीत का ज्ञान हो. रात में जब पहाड़ों की वादियों में कलाकारों के मधुर संगीत की आवाज़ गूंजती है, तो दर्शक एक अलग ही दुनिया में पहुंच जाते हैं. अधिकतर रामलीलाओं में पुरुष ही स्त्री-पात्र भी निभाते रहे हैं. राम की कथा कहने वाली इस रामलीला की एक दिलचस्प बात यह है कि इसकी शुरुआत हर रोज़ श्रीकृष्ण की रासलीला से होती है. वर्तमान में क्षेत्र में इस तरह की रामलीला अल्मोड़ा, बागेश्र्वर, नैनीताल, कालाढूंगी और पिथौरागढ़ में खेली जाती हैं.

क्या होती हैं सांगीतिक रामलीलाएं

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उत्तर भारत में आज भी कई जगहों पर आज भी रामलीलाएं होती हैं, जिसमें अधिकांश रामलीला गाकर ही खेली जाती है. इनमें प्रमुख हैं- राजस्थान के बारां ज़िले के पाटूंदा गांव में होने वाली हाड़ौती भाषा की रामलीला, जो मार्च महीने के आसपास रामनवमी के अवसर पर खेली जाती है. दूसरी, रोहतक और उसके आसपास के क्षेत्रों में खेली जाने वाली सरदार यशवंत सिंह वर्मा टोहानवी लिखित हरियाणवी भाषा की शैली वाली रामलीला और तीसरी है कुमाऊं क्षेत्र की रामलीला. इन सभी रामलीलाओं का आधार आपको तुलसीदास द्वारा रचित ‘रामचरितमानस’ में भी मिल जायेगा.

डेढ़ सौ साल पुरानी ये ‘रामलीला’ आज़ादी से पहले कराची में खेली जाती थी, जो ‘वर्ल्ड कल्चरल हेरिटेज’ लिस्ट में शामिल है.