टाइम पर ऑफिस न पहुंचने के कई कारण हो सकते हैं… ट्रैफिक की प्रॉब्लम, टाइम पर ऑटो न मिलना, घर पर वॉलेट भूल जाना या फिर लंच भूल जाना. ये हम सब के साथ होता है.
हालांकि अगर आप उनमें से हैं, जिन्हें कहीं पहुंचने का टाइम एक घंटे पहले बताया जाता है…
या जिनकी वजह से मूवी का टाइम लेट रखा जाता है…
तो मुबारक हो, आप हिस्सा हैं Late Community का.
Late समुदाय एकलौता ऐसा ग्रुप है, जिसके लेटलतीफ़ लोगों के मरने से पहले ही उनके नाम के आगे Late लग जाता है.
Hi! मेरा नाम Late आकांक्षा है. मैं उन लोगों की उत्तराधिकारी हूं, जिन्होंने अपने जीवन में कुछ भी कभी टाइम पर नहीं किया. मुझे आधे लोगों की गलतियां इसलिए माफ़ करनी पड़ती हैं, क्योंकि उन्होंने कभी न कभी, कहीं न कहीं, मेरा इंतज़ार किया था.
Late आना और Creative-Multitasking होना
वैसे आज तक Late आने के लिए कभी तारीफ़ नहीं मिली, हर वक़्त ये ही सुना कि यमराज को भी वेट करवाने का दम है तुम में. हालांकि ये रिसर्च में ये सामने आया कि जो लोग Late होते हैं, वो बाकियों के मुक़ाबले ज़्यादा Creative, आरामपसंद और मल्टीटास्किंग भी होते हैं.
इनको Time के बीतने की समझ थोड़ी कम होती है, मसलन, जैसे किसी एक आदमी को 5 मिनट बीतने का पता अगर कुछ सेकंड्स में लगता है, तो लेटलतीफ़ भाईसाहब को इसका पता उससे कहीं देर में लगेगा. हमारे लिए टाइम बीतना एक झटके जैसा होता है, ‘हैं? अभी तो 10 बज रहे थे, 11 कब बजे?’
दूसरी वजह ये भी हो सकती है कि हम एक साथ कई काम करना पसंद करते हैं. मेरे साथ ये कई बार होता है, जब मैं किचन में लंच की तैयारी कर रही होती हूं, साथ में आलमारी से ऑफिस के लिए पहनने वाले कपड़े भी निकालने लगती हूं. कई बार किचन में ही मल्टी-टास्क करने के चक्कर में रोटी या सब्ज़ी जल जाती है, या तो गिलास हाथ से छूट जाता है.
क्रिएटिव होने की एक प्रॉब्लम ये होती है कि वो हर चीज़ को अपने ही नज़रिये से देखते हैं, इसलिए बेचारों को टाइम का एहसास नहीं रहता. उन्हें लगता है कि उनके हाथ में अभी 20 मिनट पूरे हैं, जबकि उस 20 मिनट में उन्हें नहाना भी है, ऑटो भी पकड़ना है और मेट्रो स्टेशन तक भी पहुंचना है.
मैं आजतक किसी भी एग्ज़ाम में अपना पेपर पूरा नहीं कर पायी, क्योंकि मुझे लगता था कि 3 घंटे तो बहुत होते हैं… मतलब मैं Thesis लिख दूंगी इतनी देर में तो. असलियत से सामना तब होता था जब टीचर के साथ अपनी शीट की छीना-झपटी करनी पड़ती.
जल्दी आने से इतना परहेज़ क्यों भाई!
लेट होने की पहली मज़बूत वजह तो हमने आपको बता दी, लेकिन इसकी एक वजह और हो सकती है, जो अमूमन सभी लेटलतीफ़ों पर लागू होती है. वो वजह है, ‘टाइम पर पहुंच कर क्या हो जाएगा यार’. बाक़ी सभी की तरह मैं भी, ‘इतनी जल्दी क्या है यार’ सिंड्रोम से ग्रसित हूं. इस मानसिक स्थिति में आदमी ये सोचता है कि टाइम से पहले पहुंच गए, तो करेंगे क्या?
शादी में टाइम से पहले पहुंच कर क्या करेंगे? खाना तो 1 घंटे बाद ही खुलेगा!
ऑफिस में टाइम से पहले? उतना मैं घर का काम न निपटा लूं?
आपके साथ भी हुआ होगा न? ये सच में एक कंडीशन होती है, जिसमें इंसान सोचता है कि जल्दी पहुंचने वालों की इज़्ज़त थोड़ी कम होती है. लेट आने वाले का अपना Swag होता है, वो लेट है, तो ज़रूर किसी न किसी काम में Busy रहा होगा. जल्दी आने वाला तो वेल्ला है (दिल्ली की बेहतरीन भाषा का असर).
इस लेटलतीफ़ी को ठीक करने का एक तरीका जो मैंने निकाला है, वो ये है कि मैं किसी को अपने घर की घड़ियों, मेरे फ़ोन की घड़ी और पहनने वाले घड़ी का टाइम बिना बताये बढ़ाने के लिए कह देती हूं. ये तरीका इतना कारगर नहीं है, क्योंकि मुझे कहीं न कहीं से पता चल ही जाता है कि टाइम बढ़ा हुआ है.
पर कुछ न सही से, कुछ होना बेहतर है! है न?
टाइम के साथ मेरी ये कोल्ड वॉर तब तक चलती रहेगी, नहीं पता!
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