थोड़ा सा लेफ़्ट… थोड़ा सा राइट… नीचे बैठे हुए लोग थोड़ा ऊपर देख लो.
फ़ोटो खिंचवाने के लिए तैयार एक आंटी- अरे तुम्हें फ़ोटो खींचनी नहीं आती? ज़रा पीछे जाओ.
एक अंकल- आंटी की बात मत सुनो, ज़्यादा पीछे गए तो चेहरा साफ़ नहीं आएगा.
दूसरी आंटी- अरे रुको मैं बाल सही कर लूं.
दूसरे अंकल- इनका तो सजना-संवरना ही चलता रहता है, बेटो खींचो तुम.
और जैसे-तैसे मैंने Blurred फ़ोटो खींची. फ़ोटो Blurred थी इस राज़ पर से 1 हफ़्ते बाद पर्दा उठा था. ये वाकया किसी Groupie (Group Selfie) या DSLR Family Photo का नहीं है. ये है मेरी ज़िन्दगी का एक Kodak Moment था.
Kodak… नाम तो पक्का सुना होगा. स्मार्टफ़ोन के Flash से पहले Kodak के ही क्लिक का ज़माना था.
35 mm की रील से 32 फ़ोटो खींच सकते थे और अगर क़िस्मत अच्छी हुई तो कभी-कभी 33. इसके बाद जब तक स्टूडियो वाले के यहां नया एलबम और पैकेट में फ़ोटोज़ घर नहीं आ जाती, हमें चैन नहीं आता था. एलबम के ऊपर किस हीरोईन की फ़ोटो होगी, इस बात की भी उत्सुकता रहती थी.
पापा से बार-बार पूछते थे, पापा कब फ़ोटो लाओगे और पापा समझाते थे ‘वॉश करने में थोड़ा टाइम लगता है, Have Patience.’
तस्वीरों की नेगेटिव को हाथ की उंगलियों से धीरे से उठाकर देखने में भी मज़ा आता था. उसमें चेहरे कितने अलग दिखते थे.
घर पर कोई Program हो, दोस्तों के साथ पिकनिक हो या फिर कोई Family Trip, हर जगह Kodak हमारे साथ चलता था. पापा एक्सट्रा रील लेकर चलते थे, पता नहीं कब क्या हो जाए. अक़सर कैमरा जिसके हाथ में रहता था, उसकी Value बढ़ जाती थी.
एक बार स्कूल में मैं कैमरा लेकर गई थी, किसी फंशन के लिए. गले में कैमरा लटकाकर इधर-उधर घूमने में एक अलग मज़ा आ रहा था. ऐसा महसूस हो रहा था जैसे पूरे स्कूल की नज़रें मुझ पर ही हो. मेरे दोस्त कैमरे को छूकर, इस्तेमाल कर देखना चाहते थे. क्योंकि वो इकलौता था. एक दिन के लिए ही काफ़ी स्पेशल फ़ील करवाया था Kodak ने.
रील वाले कैमरे के बाद Digicam आ गया और स्मार्टफ़ोन भी. मेरे घर पर भी स्मार्टफ़ोन आ गया और Kodak एकदम साइड हो गया. फिर SLR और DSLR का भी दौर आया और अब भी है. कुछ छूट गया तो वो है रील वाला Kodak.
पापा की अल्मारी में आज भी किसी कोने में सहेजकर रखा हुआ है Kodak, पर अब सिर्फ़ मम्मी ही उसे हाथ में लगाती है, साफ़-सफ़ाई के लिए.
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