आज़ादी की लड़ाई के समय की बात हो या आज किसी मुद्दे के प्रति सरकार के ख़िलाफ़ प्रदर्शन, इंक़लाब ज़िंदाबाद का नारा आपने कई बार सुना होगा. इस नारे को सुनकर ही ऐसा लगता है जैसे रगों में खून बहने की रफ़्तार बढ़ गई हो, सोई हुई चेतनाएं जाग गई हों. इस नारे में कुछ तो ऐसी बात है कि इसे बोलते-बोलते भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव फांसी के फंदे पर ख़ुशी-ख़ुशी झूल गए. चंद्रशेखर आज़ाद ने अंग्रेज़ों से घिरे होने के बावजूद आज़ाद ही मौत को गले लगाया.
आज़ादी के समय जन-जन की आवाज़ बन चुके इस नारे के बारे में लोगों के अंदर भ्रान्ति है कि इसे भगत सिंह ने दिया था, पर असलियत ये है कि इस नारे को भगत सिंह के जन्म से पूर्व ही लिखा जा चुका था.

पहली बार ये नारा मेक्सिकन रेवोलुशन के समय Viva la Revolución के नाम से शुरू हुआ, जिसका मकसद लोगों के अंदर चेतना पैदा कर सरकार के जुल्मों के ख़िलाफ़ जगाना था. मैक्सिकन क्रांति में इस नारे का ऐसा असर रहा कि अन्य देश के लोगों ने भी इसे अपने-अपने हिसाब से ढाल कर पेश किया. हिंदुस्तान में इस नारे को ‘इंक़लाब ज़िंदाबाद’ का नाम दिया मशहूर उर्दू शायर मौलाना हसरत मोहनी ने, जो एक क्रांतिकारी साहित्यकार, शायर, पत्रकार, इस्लामी विद्वान और समाजसेवक थे.

उनकी कलम से ही निकले लफ्ज़ ने हिन्दुस्तानियों के अंदर देश प्रेम की आग को हवा दी, जिसका इस्तेमाल आज तक बदस्तूर जारी है. इस नारे का असल मतलब ‘क्रांति अमर रहे’ है. इस नारे के प्रभाव को देखते हुए चंद्रशेखर और भगत सिंह की पार्टी ‘हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन’ ने अपनाया. हिंदुस्तान में ये नारा उस समय आवाम की आवाज़ बन गया, जब भगत सिंह और उनके साथियों ने 8 अप्रैल 1929 को दिल्ली असेंबली में बम फोड़ते वक़्त इंक़लाब ज़िंदाबाद चिल्लाये.

ख़ैर, आज हमें ये नारा याद है, पर इससे ज़रूरी यादें याद नहीं. बस डर तो इस बात है कि राजस्थान और महाराष्ट्र में इतिहास बदल चुकी सरकार कहीं हसरत की कहानी को भी न मिटा दे!