देशभर में ज़बरदस्त गर्मी पड़ रही है और ऐसे में गर्मी से राहत दिलाने के लिए बाज़ार में कई तरह के फल आने शुरू हो गए हैं. लेकिन इस सीज़न फलों का राजा आम बाक़ी फल पर भारी पड़ता है. आम को इसलिए भी फलों का राजा कहा जाता है क्योंकि अन्य फलों के मुक़ाबले बाज़ार में कई प्रकार के आम आसानी से मिल जाते हैं. लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि जो आम बाजार में आसानी से मिल जाते हैं उनके यहां तक पहुंचने के पीछे कितनी मेहनत लगती होगी? चलिए हम बताते हैं.
महाराष्ट्र, भारत का सबसे अधिक आम उत्पादक राज्य है. महाराष्ट्र के कोंकण क्षेत्र का आम पूरे देश में अपनी एक अलग पहचान रखता है. वहीं रत्नागिरी अल्फांज़ो आमों की पैदावार के लिए जाना जाता है. यहां के लोगों का मुख्य व्यवसाय आम की पैदावार करना ही है. यहां अधिकतर लोगों के आम के बड़े-बड़े बाग़ हैं. ये बाग़ इतने बड़े होते हैं कि इनकी रखवाली के लिए बाग़ मालिकों द्वारा चौकीदार रखे जाते हैं. लेकिन खास बात ये है कि जो चौकीदार यहां चौकीदारी करते हैं, वो अधिकतर नेपाल से होते हैं. नेपाल के कैलाली ज़िले के ये लोग पतझड़ के बाद जब आम के फूल आने शुरू होते हैं, तभी काम की तलाश में नेपाल से 2000 किमी दूर कोंकण आने लगते हैं. हर साल तकरीबन 70 हज़ार नेपाली मज़दूर यहां काम की तलाश में आते हैं. ये अधिकतर रत्नागिरी, रायगढ़ और सिंधुदुर्ग जैसे कोस्टल इलाक़ों में ही काम की तलाश में जाते हैं.
ये मज़दूर हर साल जनवरी महीने में नेपाल से बिहार-यूपी होते हुए कोंकण पहुंचते हैं. एक दशक पहले क़रीब एक हज़ार नेपाली मज़दूर यहां आम की बगीचों की रखवाली के लिए आते थे. लेकिन अब इनकी संख्या हर साल 70 हज़ार तक पहुंच चुकी है. तकरीबन 45 से 47 डिग्री के तापमान में ये लोग रात भर आम के बगीचों के पास ही पेड़ों पर झोपड़ी बनाकर रहते हैं. ताकि जंगली जानवरों से आम को बचाया जा सके. जंगली जानवरों को भगाने के लिए ये नेपाली चौकीदार अपने पास गुलेल, छुरी और छोटे-छोटे पत्थर रखते हैं. ये नेपाली मज़दूर न सिर्फ़ आम के बगीचों की रखवाली करते हैं, बल्कि आम पकने के बाद उनको तोड़ना, छंटाई करना, लकड़ी की पेटियां बनाना, पेटियों में भरकर बेचने के लिए भेजने तक का काम करते हैं. इसके लिए उन्हें यहां करीब 6 से 7 महीने रुकना पड़ता है.
हिन्दुस्तान टाइम्स में छपी रिपोर्ट के मुताबिक़, इस दौरान इनकी ज़िन्दगी बेहद कठिन होती है. एक दिन की छुट्टी भी नहीं मिलती है. खाने और रहने की सुविधा भी नहीं मिलती है. सुबह से रात तक काम करना पड़ता है. पूरे परिवार के साथ बगीचे में बनी झोपड़ियों में रहना पड़ता है. 1000 से ज़्यादा पेड़ों की रखवाली करने के लिए पेड़ों के ऊपर झोपड़ी बनाकर भी ज़िन्दगी गुज़ारनी पड़ती है.
प्रवासी मज़दूरों के लिए काम करने वाली NGO ‘आजीविका’ के फ़ील्ड एग्ज़िक्युटिव, दीपक पराड़कर का कहना है कि, पहले ये सभी मज़दूर अकेले आया करते थे. लेकिन अकेले में इनको खाने-पीने में असुविधा होती थी, इसलिए अब ये अपने पूरे परिवार के साथ आने लगे हैं. ये लोग सुबह से रात तक चौकीदारी करते हैं और इनकी पत्नियां इनके लिए खाना बनाने का काम करती हैं. दुःख-तकलीफ़ के वक़्त इनके परिवार वाले बाग़ की रखवाली करते हैं. परिवार के साथ आने से इनको फ़ायदा भी होता है क्योंकि बाग़ मालिक इनके बच्चों को भी रोज़गार दे देते हैं. इसके लिए उन्हें आधी मज़दूरी दी जाती है.
रूण गांव के प्राइमरी स्कूल के टीचर मंगेश हटकर का कहना है कि ये मज़दूर अपने 6 से 10 साल के बच्चों को स्कूल में पढ़ाने के लिए हमारे पास आते हैं. इसलिए हम इनके बच्चों को रजिस्टर में नाम लिखाए बिना पढ़ाते हैं. हम उन्हें पुरानी क़िताबें और लंच भी देते हैं. जबकि ये लोग जून महीने में यहां से चले जाते हैं.
आम उत्पादक प्रदीप मोरे कहते हैं कि हमें 6 महीने के लिए दो मज़दूरों पर 50 हज़ार से 1 लाख तक ख़र्च करने होते हैं. जबकि हर बाग़ मालिक एक सीज़न में तक़रीबन 20 लाख तक की कमाई कर लेता है. यदि ये लोग अच्छी तरह से काम करते हैं, तो हम उनके घर वापस जाने पर बस टिकट का पैसा भी देते हैं, मैंने इस वर्ष 12 नेपाली मज़दूरों को रोज़गार दिया है.
कोंकण आम ऑर्चर्ड के मालिक और विक्रेता सहकारी संघ के अध्यक्ष विवेक भिड़े का कहना है कि अल्फांज़ो आम का निर्यात लगातार बढ़ रहा है. इससे लोगों कि अच्छी खासी कमाई हो जाती है. इसके लिए आम उत्पादक आम को चोरी और नुकसान से बचाने के लिए नेपाली मज़दूर रखते हैं. एक नेपाली मज़दूर आमों के 2,000 से ज़्यादा बक्से पैक करता है जिसकी बाजार में क़ीमत 20 लाख रुपये से ज़्यादा होती है. जबकि बाग़ मालिकों को दो मज़दूरों पर मात्र 50 हज़ार से 1 लाख रुपये ख़र्च करना होता है जो कि अच्छा सौदा है.
रत्नागिरी के ज़िला कलेक्टर एम.एन. कांबले का कहना है कि जब यहां आम की पैदावार अच्छी नहीं होती थी, तो यहां के अधिकतर युवा रोज़गार की तलाश में मुंबई, पुणे और नागपुर जैसे बड़े शहरों की ओर पलायन कर गए. जो यहां रह गए वो अपने बगीचों की देख-रेख करते हैं. जिस वजह से यहां मज़दूरी के लिए लोगों का मिलना मुश्किल हो जाता है. इसी लिए पिछले एक दशक से हज़ारों नेपाली यहां रोज़गार की तलाश में आ रहे हैं.
रूण गांव के सरपंच और आम उत्पादक मधुकर जाधव कहते हैं कि स्थानीय मज़दूर पूरी रात आम की रखवाली के लिए खेत में नहीं रहते हैं. जबकि नेपाली निडर और भरोसेमंद होते हैं और पूरी रात बागों की रखवाली करते हैं. ये लोग ज़्यादा डिमांड भी नहीं करते, पैसे भी कम लेते हैं, चोट लग जाने पर इनका किसी भी प्रकार का बीमा भी नहीं कराना पड़ता है. यदि चौकीदार की मौजूदगी में फ़लों को नुकसान होता है, तो उसकी सैलरी में से पैसे काट दिए जाते हैं.
मज़दूरों का कहना है कि यहां आना उनके लिए फ़ायदे का सौदा होता है. क्योंकि बस के किराये के लिए प्रति व्यक्ति तकरीबन 2600 रुपये जबकि ट्रेन में 1100 रुपये ही ख़र्च करना पड़ता है. 6 महीने के लिए 50 हज़ार से 1 लाख़ तक की कमाई हो जाती है जिससे हमारे कई काम बन जाते हैं. नेपाल के हिसाब से ये पैसा बहुत अच्छा है.
28 वर्षीय सीमा विश्वकर्मा का कहना है, ‘मैं रत्नागिरी में हर साल जो भी पैसा कमाती हूं उससे हमारी कई परेशानियां ख़त्म हो जाती हैं, बहन की शादी हो गई और अगले साल तक अपना ख़ुद का घर भी हो जायेगा. यहां काम करना ‘मज़बूरी का नाम महात्मा गांधी’ जैसा है.