आख़िर कब तक सच से मुंह मोड़ कर चांद पर शायरी लिखी जाएगी? कब तक कविताएं महबूब की ज़ुल्फ़ों में लिपटी रहेगी और कब तक ग़ज़लों में शराब के कसीदे पढ़े जाएंगे?

ये सवाल उठाए हैं रमनीक सिंह ने अपनी कविता के माध्यम से. साथ में नवाज़ुद्दिन सिद्दिकी ने भी उनकी कविता को अपनी आवाज़ दी है.

कविता मुख्यत: कवि बिरादरी को समर्पित है और उनको लानत भेजती है. उनकी समाज के प्रति बेरुखी के लिए, अपनी ज़िम्मेदारियों से मुंह मोड़ लेने के लिए.

जहां अन्नदाता की मौत की वजह उसकी फ़सल बन जाती है, वहां कवि की क़लम कैसे कोरे ख़्वाब बुन सकती है.

जिस वक़्त में नाले के भीतर दम घुटने से सफ़ाईकर्मी की मौत हो जाती है, उस वक़्त कैसे कोई मौसम की बातें कर सकता है.

कविता का काम तालियां बटोरना नहीं है, अब कविताओं को नारों की जगह लेनी होगी. कविताओं को लोगों को झकझोरना होगा, ख़्वाबों से निकलना होगा, सड़क पर उतरना होगा, मोर्चे में जाना होगा, व्यवस्था की लाठियां खानी होंगी… और ये सब मेरे कवि दोस्त, तुम्हारी कविताएं करेंगी.

पूरी कविता यहां सुन सकते हैं.