‘मेरी क्या औक़ात है कि मैं सदा जीवित रहूं, जबकि फ़ारसी शायर नज़ीरी नीशापुरी न रहा, तालिब आमली भी मर गया, अगर लोग पूछें इस वर्ष क्या ग़ालिब मर गया, तो उन्हें बता दो कि ‘ग़ालिब मर गया’.

ये हिन्दी अनुवाद है ‘मिर्ज़ा असदउल्लाह बेग़ ख़ान’ उर्फ़ ‘मिर्ज़ा ग़ालिब’ के एक उर्दू शेर का. इस उर्दू शेर के कुछ अंश मिर्ज़ा ग़ालिब की मज़ार पटिट्का पर भी खुदे हुए हैं.

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हिन्दी और उर्दू ज़बान जानने वाले लोगों को अगर मिर्ज़ा ग़ालिब का परिचय देना पड़े, तो मैं समझता हूं कि देश ने एक बहुमूल्य बौद्धिक संपत्ति को खो दिया है. इसलिए मैं परिचय के तक़ल्लुफ के आगे की बात शुरू करता हूं. अभी पिछले महीने ही मिर्ज़ा ग़ालिब की पुण्यतिथि बीती है. इस मौके पर साहित्य से जुड़े तमाम संगठनों के साथ-साथ मेरे ज़हन में भी मिर्ज़ा ग़ालिब की याद ताज़ा हो गयी. लेकिन ये याद हमेशा की याद से अलग थी, इस बार ग़ालिब को निजी तौर पर जानने का मन हुआ. उत्सुकता को शांत करने लिए मैं चल पड़ा उनकी मज़ार की ओर.

तेरहवीं शताब्दी के मशहूर सूफ़ी संत हज़रत ख़्वाजा निज़ामुद्दिन की दरगाह तक जाने वाले रास्ते के बीच में पड़ती है ग़ालिब की मज़ार. हालांकि, ये कुछ दशकों से इस नाम से जाना जाने लगा है. इसके पहले इस जगह को ‘चौंसठ खम्बा’ और ‘मिर्ज़ा अजीज़ का मक़बरा’ के नाम से जाना जाता था. मिर्ज़ा अजीज़ का ताल्लुक मुगल खानदान से था. दरअसल, ये जगह बहुत पहले कब्रिस्तान थी. जो लगभग दो हिस्सों में बंटी हुई थी. एक हिस्सा मुगल खानदान के अधीन था और दूसरा हिस्सा मिर्ज़ा ग़ालिब के ससुराल वालों की संपत्ति थी. वैसे तो ग़ालिब का जन्म आगरा में हुआ था, लेकिन उनकी जवानी और बुढ़ापा दिल्ली में ही गुज़रा. इसलिए ग़ालिब की चाहत थी कि उन्हें हज़रत निज़ामुद्दिन की बस्ती में ही दफ़्न किया जाए.

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13 फरवरी,1869 को मिर्ज़ा ग़ालिब दिमाग़ी बीमारी की वजह से कोमा में चले गए थे और उसके ठीक, दो दिन बाद 15 फरवरी,1869 को उनका इंतकाल हो गया. एक आम मुसलमान की तरह इस्लामी तौर-तरीकों से उनका अंतिम संस्कार हुआ. ग़ालिब को उनके ससुर की कब्र के पास ही दफ़्न किया गया. दो साल बाद उसी कब्रिस्तान में दो गज के फ़ासले पर ग़ालिब की बीवी उमराव बेग़म को भी दफ़नाया गया.

एक दार्शनिक ने कभी कहा था कि, ‘अगर तुमको किसी कौम़ की हालत का अंदाज़ा लगाना है, तो तुम उसकी मज़ारों पर चले जाओ. अगर आपका कभी मिर्ज़ा ग़ालिब की मज़ार पर जाना हुआ, तो देखते ही अंदाज़ा हो जाएगा कि समाज और में इस कौम के ताज़ा हालात क्या हैं. 

यहां कौम से मेरा मतलब मुसलमान से कतई नहीं है. मैं शायरों की बात कर रहा हूं. ग़ालिब की मज़ार को सफ़ेद संगमरमर के पत्थर से बनाया गया है. इस कब्रिस्तान को केवल एक दीवार के ज़रिये दो हिस्सों में बांटा गया है और आने-जाने के लिए बीच में एक दरवाज़ा भी बनाया गया है. पूरा परिसर ही सफ़ेद संगमरमर से निर्मित है. मज़ार की विपरीत दिशा में जो पत्थर है, उस पर तीन भाषाओं में ग़ालिब का एक शेर उकेरा गया है. यहां आने वाले पर्यटकों के लिए बैठने की व्यवस्था भी है. इक्का-दुक्का पेड़ भी हैं.

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ग़ज़ल-शेर समझने और जानने वाले लोगों से बस एक शायर का नाम लेने भर को कहा जाए, तो मिर्ज़ा ग़ालिब का नाम लेने वालों की तादाद यकीनन सबसे ज़्यादा होगी. इस बात से आप मिर्ज़ा ग़ालिब की शख़्सियत का अंदाज़ा तो लगा ही सकते हैं. 

मिर्ज़ा ग़ालिब की मज़ार को देखते ही दिमाग में एक सवाल उमड़ता है कि इतने बड़े शायर की मज़ार इस हालत में क्यों है? वो भी कई संगठनों और सरकारों के अथक प्रयास के बाद? मिर्ज़ा ग़ालिब की मज़ार की मरम्मत कई बार की जा चुकी है. पहले उनके शागिर्दों ने की और फिर कई दफ़ा उनके चाहने वालों ने की. मकसद बस एक था, आने वाली पीढ़ी इस शायर का एहतराम करे. ग़ालिब को उस मुकाम से जाने, जिसके वो हक़दार हैं. बेशक अभी ग़ालिब की मज़ार सुरक्षित है. भविष्य में भी उस पर कोई ख़तरा मंडराता नहीं दिखता. लेकिन अब भी मज़ार उस हालत में नहीं है, जिससे ग़ालिब की शख़्सियत का अंदाजा लगता हो. ये मज़ार एक पर्यटन स्थल भी है, दिल्ली और ग़ालिब को चाहने वाले देश-विदेश के पर्यटक इस मज़ार को देखे बिना दिल्ली नहीं छोड़ते.

“महरबां हो के बुला लो मुझे चाहो जिस वक़्त

मैं गया वक़्त नहीं हूं, कि फिर आ भी न सकूं”

Feature Image Source- post.jagran