मोहम्मद नईम की ज़िन्दगी की आख़री Groupie में वो ख़ून से लथपथ, हाथ जोड़े कुछ गांववालों के साथ खड़ा नज़र आ रहा है. गांववालों के चेहरे नज़र नहीं आ रहे क्योंकि नईम ज़मीन पर बैठा हुआ है. उसका आधा शरीर लहुलूहान है, शरीर पर एक बनियान है, कोई कमीज़ नहीं. कमीज़ शायद फाड़ दी गई है. उसकी पतलून भी भीगी है. काली पतलून में ख़ून दिखाई नहीं देता, वरना पतलून भी लाल ही नज़र आती. रक्तरंजित ये तस्वीर अगर आपके रोंगटे खड़े कर रही है, तो सिर्फ़ एक बार उसके बारे में सोचिए जिसको इससे गुज़रना पड़ा हो.

मोहम्मद नईम ने गांववालों को बहुत समझाने की कोशिश की. अपने जान की भी भीख मांगी, पर भीड़ पर मृत्यु देव सवार थे. बृहस्पतिवार को सोभापुर निवासियों ने 4 लोगों को पीट-पीटकर मार डाला. गौर करने वाली बात ये है कि सोभापुर, जमशेदपुर से घंटे भर की दूरी पर है.

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नईम WhatsApp पर फैले मैसेज का शिकार हो गया. WhatsApp पर मैसेज वायरल हुआ था कि बच्चा चोरी गैंग के कुछ सक्रीय लोग खुलेआम घूम रहे हैं. गांववालों में अधिकतर आदिवासी समुदाय से थे और पूर्वी सिंगभूम ज़िले के सरायकेला-खारसवान क्षेत्र से थे, सोभापुर भी इसी क्षेत्र का गांव है.

पिछले सप्ताह 2 अन्य लोगों को भी बच्चा चोरी करने के संदेह में पीट-पीटकर मारा डाला गया. ये दोनों ही लोग निर्दोष थे.

मोहम्मद नईम की तस्वीर कुछ याद दिलाती है. गुजरात के कुतुबुद्दीन अंसारी की हाथ जोड़कर रोती हुई तस्वीर, गुजरात दंगों की पहचान बन गई थी. अंसारी को बचा लिया गया था, पर नईम की किस्मत इतनी अच्छी नहीं थी.

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नईम घाटशिला का रहने वाला था और अपने व्यापारी दोस्तों के साथ सोभापुर से गुज़र रहा था. गांववालों ने उनकी एसयूवी को रोका और चारों को खींचकर बाहर निकाला. घंटों तक प्रताड़ित करने के बाद उन्हें मौत के घाट उतार दिया गया. पुलिस घटना स्थल पर पहुंच गई थी, पर पुलिस ने हस्तक्षेप नहीं किया.

नईम के रिश्तेदार जलालुद्दीन ने बताया कि नईम अपने बूढ़े मां-बाप की अच्छे से देखभाल करता था और अपने बच्चों को अच्छी परवरिश दे रहा था. नईम की पत्नी डिप्टी ग्राम प्रधान हैं. परिवार ने 2 लाख रुपये के मुआवज़े को नामंज़ूर कर दिया है और न्याय की गुहार लगाई है.

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ये पहला मौका नहीं है, जब कोई निर्दोष पागल भीड़ का शिकार हुआ हो. दादरी के मोहम्मद अख़लाक को आज भी इंसाफ़ नहीं मिला है.

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कल्याणी यूनिवर्सिटी के एक प्रोफ़ेसर और उनकी बेटी को भीड़ ने ज़िंदा जलाने की कोशिश की. ये दोनों ही एनआरआई हैं और कुछ दिनों के लिए ही भारत लौटे थे. इन दोनों को भी गांववालों ने बच्चा बेचने वाला समझा था. पहचान-पत्र, पासपोर्ट दिखाने पर भी भीड़ के ऊपर कोई असर नहीं हुआ. ऐन मौके पर पुलिस ने आकर इन्हें बचा लिया.

कभी-कभी ख़बरें लिखते हुए ये तय करना मुश्किल हो जाता है कि हम इंसान हैं या मशीन. इंसानों के रूप में जानवरों से बदतर हो चुके हैं हम. क्या कानून नाम की कोई चीज़ नहीं या इंसानियत नाम की? ज़रूरतमंदों की सहायता के लिए तो कोई हाथ उठता नहीं. छिड़ती हुई लड़की का वीडियो बन जाता है, पर इज़्ज़त बचाने के लिए कोई आगे नहीं आता. हमें सोचना पड़ेगा कि हम कहां जा रहे हैं.

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