आज जिस प्रगतिवादी और शिक्षित केरल को हम जानते हैं. ख़ासकर महिलाओं की शिक्षा के मामले में केरल की काफ़ी तारीफ़ की जाती है. पर हम आपको बता दें, वहां हमेशा से महिलाओं के इतने अच्छे हालात नहीं थे. आज़ादी के कुछ समय पहले तक यहां सामाजिक स्तर पर अनेक बुराइयां फैली हुई थी. केरल के त्रावन्कोर जिले के आस-पास के क्षेत्र में निचली जाति की महिलाओं को अपने शरीर के ऊपरी हिस्से को कपड़े से ढकने की अनुमति नहीं थी.
यहां तक कि किसी महिला को अगर स्तन ढ़के हुए देख लिया जाता था, तो उसके साथ अपराधियों जैसा बर्ताव किया जाता था. यह कुप्रथा 19वीं सदी के मध्य तक यहां पर थी.
26 जुलाई 1859 को एक लम्बी लड़ाई के बाद इन महिलाओं को अपने ऊपरी शरीर को ढ़कने का अधिकार मिला, वो भी केवल एक तरफ़ (आगे) से. यह सामाजिक स्तर पर महिलाओं के लिए एक बहुत बड़ी सफलता थी.
एक और बात उस समय गौर करने लायक थी कि नम्बोदिरी, ब्राह्मण, क्षत्रिय और नैय्यर जाति की महिलाओं को घर से बाहर जाते समय अपने शरीर के उपरी हिस्से को ढकने की इजाज़त थी. यह तत्कालीन समय में फैला हुआ एक घिनौना जातिगत विभेद था. दलित महिलाओं पर यहां ‘Mulakkaram’ नाम का ‘ब्रेस्ट टैक्स’ लगता था.
हर जाति की महिलाओं के लिए अलग-अलग नियम बने हुए थे. एक ब्राह्मण जाति के शख्स के सामने एक क्षत्रिय जाति की महिला को जबरदस्ती तन का ऊपरी हिस्सा न ढकने के लिए मजबूर किया जा सकता था. एक किस्सा तो बहुत ही दिल दहलाने वाला है, एक बार महल में रानी के सामने एक निचली जाति की महिला अपने स्तन को ढक कर सामने आ गयी, तो रानी ने उसके स्तन काट डालने का तुगलकी फरमान सुना दिया.
यहां तक कि राजा की सवारी जब सार्वजनिक रूप से शहर से निकलती थी, तो उच्च जाति की महिलाओं को भी अपने स्तन बिना ढके राजा के ऊपर फूल बरसाने होते थे.
19वीं सदी के शुरुआत से चीज़े बदलने लगी. लोग जब रोजगार के सिलसिले में बाहर श्रीलंका जैसे क्षेत्रों में जाने लगे, तो उन्हें अनेक नई-नई सामाजिक प्रणालियां देखने को मिली. जागरूकता बढ़ने के साथ ही महिलाओं ने घर के अन्दर और बाहर दोनों जगह अपने स्तनों को ढकना प्रारम्भ कर दिया.
मगर इस ऐतिहासिक बदलाव को पुरुष प्रधान समाज ने इतनी आसानी से स्वीकार नहीं किया. शुरुआती दौर में जब भी उच्च जाति के पुरुष के सामने कोई निम्न जाति की महिला अपने शरीर का ऊपरी हिस्सा ढक कर सामने आ जाती थी, तो वे निर्दयी रूप से उसके कपड़े तक फाड़ डालते थे.
यह संघर्ष लम्बे समय तक चलता रहा. इसके बाद जब अंग्रेजों का प्रभाव इस क्षेत्र में बढ़ा, तो उन्होंने दीवान को इस बर्बर आदेश को तुरन्त हटाने के लिए कहा. आखिर में 26 जुलाई 1859 को महिलाओं को पूर्ण रूप से अपना तन ढकने का अधिकार मिल गया.
समाज निरन्तर संक्रमण के दौर से गुजरता रहता है, समय के साथ इसके अन्दर व्याप्त कुरीतियां हटती जाती हैं. समय के पहिये पर सवार लोगों के संघर्ष ने यहां व्याप्त इस घिनौनी परम्परा को खत्म कर ही डाला. आज भी समाज में औरतों के साथ इन्सानों जैसा सुलूक नहीं किया जाता है. उन्हें अपने अधिकारों के लिए संघर्षरत रहना होगा, तभी वह अपने हक को हासिल कर पायेगी. इसमें शिक्षा और आर्थिक रूप से अपने पैरों पर खड़ा होना सबसे बड़े फेक्टर हैं, जो उसकी मदद कर सकते हैं.