2013 में तत्कालीन सरकार नेशनल फ़ूड सिक्योरिटी बिल लेकर आई थी, जिस पर संसद ने भी पूर्ण बहुमत के साथ अपनी सहमति दर्ज कर दी थी. इस बिल का मकसद देश के लोगों को खाद्य सुरक्षा देना था, जिससे देश में रहने वाले किसी भी नागरिक को भूखा न रहना पड़े. आज इस बिल को आए 4 साल से भी ज़्यादा हो गया है. कागज़ों में भी ये बिल पूरी तरह से लागू हो चुका है, पर ज़मीनी हक़ीक़त कुछ और ही आंकड़े पेश कर रही है.
कुछ महीने पहले ही झारखंड में सरकारी योजनाओं की वजह से अनाज न मिलने की वजह से एक बच्ची की जान चली गई थी, जबकि बिहार में एक महिला अनाज न मिल पाने की वजह से भूख से तड़प कर मौत की नींद सो गई. सरकार की तरह ही हमारे लिए भी ये ख़बर आई -गई हो गई, जिसमें संवेदना तो जागी, पर सिर्फ़ कुछ समय के लिए ही.
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ऐसी ही संवेदना के तले बिहार की मुसहर जाति न जाने कितने ही वर्षों से चूहे खा कर अपनी भूख मिटाने को मजबूर हैं. कभी ये जाति केवल बिहार तक ही सिमटी हुई थी, पर वर्षों पहले शुरू हुए माइग्रेशन की वजह से आज ये जाति बिहार से ले कर उत्तर प्रदेश और झारखंड तक फैली हुई है. माइग्रेशन के बावजूद ये जाति सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से ज़रूरत से ज़्यादा ही पिछड़ी हुई है. ऐसा नहीं कि इस जाति के बारे में किसी राजनेता ने न सोचा हो, पर उनके लिए भी ये जाति सिर्फ़ एक राजनीतिक मोहरा भर थी, जिसका इस्तेमाल चुनावों के दौरान वोट को भुनाने में किया गया.
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इस जाति की मज़बूरियां हम केवल किसी बात से समझ सकते हैं कि फ़ास्ट-फ़ूड, Commercialization दौर में भी भूख को शांत करने के लिए चूहे पकड़ कर खाने को विवश हैं. हाल ही में हिंदुस्तान टाइम्स ने इसी जाति को केंद्र में रखते हुए बिखरे हुए कुछ पन्नों को समेटने की कोशिश की है. आज हम भी आपके लिए उन्हीं बिखरे पन्नों में से कुछ तस्वीरें निकाल कर लाये हैं, जो मुसहर जाति के हालातों को बताते हुए इंसानी मूल्यों और रणनीति के तहत चलने वाली राजनीति पर कड़ा प्रहार करती है.
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इस जाति में साक्षरता की दर केवल 10% ही है, जिसकी वजह से सरकारी योजनाओं के प्रति ये लोग जागरूक ही नहीं है. इस तस्वीर में भी के लड़का भुने हुए चूहे को खाता हुआ दिखाई दे रहा है.
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भारत के तीन राज्यों में मुसहर जाति के लोगों की संख्या 2.5 मिलियन के आस-पास है. इसके बावजूद सरकार और सरकारी नीतियां इन लोगों के प्रति उदासीन दिखाई देती हैं.
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भारतीय समाज में दलित पहले ही आर्थिक और सामाजिक रूप से निचले पायदान हैं, पर मुसहरों की स्थिति दलितों से भी ज़्यादा नीचे है, जहां शिक्षा का मतलब चूहों को पकड़ना और जंगलों से अनाज खोजना है.
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जीतन राम मांझी इस जाति के मुखिया के रूप में उभरे, पर राजनीतिक आकांक्षाओं में वो ऐसा रमे कि इस जाति के उत्थान को भूल गए.
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बात जहां से चली थी, वहीं आकर ठहर गई कि सरकार के तमाम दावों के बावजूद आज भी विकास की धारा वहां नहीं पहुंच पाई, जहां मुसहर जाति के लोग जंगलों से चूहे और घोंघे पकड़ कर जीने को मजबूर हैं.
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हालांकि इस ख़बर को पढ़ने के बाद हम भी सिर्फ़ कुछ समय तक सोचेंगे कि ‘क्या आज भी ऐसा संभव है कि किसी को अपना पेट भरने के लिए इस तरह की चीज़ों से गुज़रना पड़ता है?’ हो सकता है कि हमारी संवेदना अन्य लोगों से थोड़ी ज़्यादा हो और खाना खाते वक़्त इन लोगों के बारे में सोचने लगे, पर फिर क्या? एक-दो दिन बाद फिर ये ख़बर हमारे लिए आई-गई हो जाएगी और रात का खाना फिर से कूड़ेदान के ढेर तक पहुंच जायेगा और संवेदना एक बार फिर नई ख़बरों के नीचे दब जाएगी.