कुछ पुरानी यादों के पन्ने पलटे तो, जो पन्ना रुका वो साल 2005, मेरे कॉलेज के दिनों का था. सबकी तरह मैं भी स्कूल से कॉलेज जाने वाली थी. मैं एक गर्ल्स स्कूल में थी, इसलिए शायद थोड़ा कंफ़्यूज़ और डरी हुई थी. मेरा जो कॉलेज था वो को-एड था. वहां लड़के-लड़कियां साथ पढ़ते थे. इसलिए मन में बहुत सारे सवाल हिलोरे मार रहे थे. मैं फ़िल्मों की शौक़ीन हूं तो सवाल भी कुछ फ़िल्मी थे. क्या मेरा कॉलेज करन जौहर की मूवी जैसा होगा? क्या वहां कोई तेरे नाम वाले राधे भइया मिलेंगे? या फिर मैं हूं न वाले सतीश शाह जैसे प्रिंसिपल? क्या मुझे भी कोई राज आर्यन मिलेगा?

मगर जब कॉलेज में घुसी तो जो हुआ वो जानने के लिए मेरी कहानी को सुनना पड़ेगा. इसे सुनकर आपको अपने कॉलेज के दिन ज़रूर याद आ जाएंगे.

मेरे कॉलेज का पहला दिन था उसके लिए मैंने बहुत तैयारी की थी. नया बैग लिया, नए कपड़े जो सिर्फ़ कॉलेज के पहले दिन के लिए बनवाए थे. उसके बाद निकल पड़ी कॉलेज के लिए. अकसर पापा स्कूल छोड़ते थे, लेकिन कॉलेज अकेले जाने का ऑप्शन चुना. स्कूल से कॉलेज के बीच जो उमर् का गैप आया था, उसके चलते ये फ़ैसला ही ठीक लगा.

घर से कॉलेज तक पहुंचने के लिए पहले तो ट्रैफ़िक ने आधी एनर्जी ख़त्म कर दी. नए कपड़े भी पसीने-पसीने हो गए. उसके बाद जैसे-तैसे कॉलेज पहुंची तो हालत बुरी हो चुकी थी. न तो मैं मोहब्बतें वाली ऐश्वर्या लग रही थी और न ही मैं हूं न वाली अमृता.

इसके बाद जैसे ही कॉलेज में घुसी तो लगा कि अब कहीं राधे भइया जैसा कोई न मिल जाए. इसलिए लड़कों से बात करने में थोड़ा डर रही थी.
मेरी इसी सोच की वजह से मैं अपने कॉलेज के पहले दिन ही इतने बड़े कॉलेज में अकेले पड़ गई. ऐसे ही अकेले हैरान परेशान अपनी क्लास ढूंढने में लगी थी. तभी एक आवाज़ आई कौन-सी क्लास में जाना है मैंने बता दिया बी.ए फ़र्स्ट ईयर सेक्शन-ए. उसने मुझे बताया ही नहीं छोड़कर भी आया. जब क्लास में पहुंची तो सबने मेरी हेल्प की. फिर कॉलेज से जुड़ी फ़ॉर्मेल्टीज़ पूरी करने में लग गई. इन सब में मेरी बची-कुची एनर्जी भी ख़त्म हो चुकी थी.

जोरों की भूख लगी, तो कैंटीन पहुंची सोचा वो भी बहुत कलरफ़ुल फ़िल्मों जैसी होगी. मगर वहां भी कुछ वैसा नहीं मिला. मुझे लगा था कि जैसे फ़िल्मों में दोस्तों के साथ कैंटीन में लड़ाई दिखाते हैं सब साथ में खाते हैं, वैसा भी नहीं हुआ. तो बेमन से अकेले खाया और फिर वहां से चली आई.

पहला दिन बस ऐसे ही निकल गया न किसी की घड़ी में दुपट्टा फंसा और न ही कोई राधे भइया मिले, जिन्हें कम से कम सैल्यूट ही कर लेती, तो भी लगता कि यार फ़िल्मों जैसा कुछ तो हुआ. ख़ैर, उस दिन एक बात पता चला कि फ़िल्मों के कॉलेज और स्कूल सिर्फ़ एक धोखा हैं.

जब असल ज़िंदगी में धक्के खाए, तो पता चला राज आर्यन और राधे जैसे लड़के सिर्फ़ फ़िल्मों की उपज होते हैं. असल ज़िंदगी में इनका कोई वास्ता नहीं होता है. असल ज़िंदगी फ़िल्मों की तरह फ़ेरी टेल नहीं, बल्कि प्रैक्टिकल होती है.
अगर आपके पास भी अपने कॉलेज के पहले दिन के अनुभव हैं, तो हमसे कमेंट बॉक्स में शेयर कर सकते हैं.