दिवाली… एक ऐसा त्यौहार जब देश का कोना-कोना रौशन हो जाता है. मान्यता है कि भगवान राम 14 वर्ष का वनवास ख़त्म कर अयोध्या लौटे थे और अयोध्यावासियों ने दीप जलाकर उनका स्वागत किया था.
दिवाली के दौरान चारों और रौशनी होने के साथ ही एक और चीज़ बढ़ जाती है, तांत्रिकों की गतिविधियां. आप इसमें यक़ीन करें या न करें, लेकिन आज भी कई लोग जादू-टोना करते हैं.
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दिवाली: हमारे लिए ख़ुशी, तो किसी के लिए मौत
रात का पक्षी ‘उल्लू’ से अक़सर इंसानों को डर लगता है. वैसे तो ये देवी लक्ष्मी का वाहन है, लेकिन इंसानों ने इनकी ज़िन्दगी भी नर्क बना रखी है. दिवाली इंसानों के लिए खुशियां और उत्तर प्रदेश के उल्लुओं के लिए मौत लेकर आता है.
उल्लू की तस्करी
यक़ीन करना मुश्किल है. भला उल्लुओं की तस्करी क्यों की जाएगी? लेकिन मेरठ के बहेलिया समुदाय के लोग दिवाली से पहले ज़ोर-शोर से उल्लुओं की तस्करी में लग जाते हैं.
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क्यों की जाती है तस्करी
TOI की रिपोर्ट के अनुसार, उत्तर प्रदेश के पक्षी बाज़ार में दिवाली से पहले उल्लुओं की तादाद बढ़ जाती है. देश के कई घरों में दिवाली के दिन उल्लू की बलि दी जाती है. ऐसी मान्यता है कि अगर दिवाली के दिन उल्लू की बलि दी जाए तो ‘लक्ष्मी’ उस घर में रहने के लिए मजबूर हो जाती हैं.
आगरा में तो इन पक्षियों की ‘होम-डिलिवरी’ भी की जाती है.
सभी अंगों का होता है उपयोग
WWF की एक रिपोर्ट कहती है कि हर साल कितने उल्लूओं की तस्करी होती है, इसके आंकड़े मौजूद नहीं हैं. इसी रिपोर्ट के अनुसार, तांत्रिक उल्लुओं के शरीर के लगभग हर अंग(खोपड़ी, पंख, कान, पंजे, दिल, खून, आंखें, चर्बी, चोंच, आंसू, मांस, हड्डियां) का पूजा में इस्तेमाल करते हैं.
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बड़े उल्लू की ज़्यादा मांग
WWF की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में पाई जाने वाली 30 उल्लूओं की प्रजातियों में से 15 दिवाली में बलि के लिए प्रयोग किए जाते हैं. और इस दौरान सबसे ज़्यादा मांग बड़े उल्लूओं की होती है.
The Indian (Rock) Eagle Owl, Brown Fish Owl, Dusky Eagle Owl, Indian Scops Owl और Mottled Wood Owl… इन 5 प्रजातियों की मांग सबसे ज़्यादा है. ये आकार में बड़े होते हैं, इसीलिए बलि के लिए खोजे जाते हैं.
नई नहीं है उल्लू की तस्करी
2016 में आई New Indian Express की एक रिपोर्ट के मुताबिक, कर्नाटक के मालनाड क्षेत्र में शिकारी उल्लू पकड़ते हैं और उन्हें कर्नाटक, केरल, महाराष्ट्र और अन्य राज्यों में इनकी तस्करी की जाती है.
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सोशल मीडिया का प्रयोग
वो ज़माना गया, जब तस्करी काफ़ी मुश्किल होती थी. पेड़ों पर निशान बनाए जाते थे. तस्कर भी नई तकनीक का इस्तेमाल करते हैं. WhatsApp और Facebook के ज़रिए जानकारी का आदान-प्रदान होता है और ‘माल’ तय स्थान पर पहुंचाया जाता है.
उल्लू की क़ीमत
TOI से बातचीत में Wildlife SOS के Conservation Projects के डायरेक्टर बैजु राजू ने बताया,
आगरा में हमने शिकारियों को पकड़ा था. एक पक्षी 3-30 हज़ार रुपए तक में बेचे जा रहे थे.