गुज़ारिश: इस आर्टिकल को शुरू करने से पहले लेखक यह कहना चाहता है कि हमने इसमें कोई तस्वीर नहीं जोड़ी है ,पर यादों की बहुत सी तस्वीरें इस लेख की हर पंक्ति में आपको मिलेंगी. आप भी पतंगों को लेकर अपनी यादों से जुड़ा किस्सा हमारे साथ शेयर कर सकते हैं. और प्लीज़ पढ़ना तो पूरा पढ़ना, वरना आधी-अधूरी यादों को जानने का कोई फ़ायदा नहीं है.

उम्र तो याद नहीं कितनी थी लेकिन इसके अलावा बाकी किस्से ज़रूर याद थे. हमारी गली, मोहल्ले में थी, गली में मोड़ था, नुक्कड़ पर कुछ लोग बहुत सी बातों के साथ बैठा करते थे. मैं नया-नया अपनी दुनिया बना रहा था. मां बीमार रहती थी, खाने का कोई अता-पता नहीं रहता था. पापा को दुकान से फुर्सत नहीं रहती थी. बहन का बचपन मिट्टी के बर्तन बनाकर कर गुजर रहा था. छत पर मैं आता और उसके बर्तन तोड़ जाता. गोबर थापने का काम भी मुझे ही करना पड़ता था. पर मैं ये सब छुप-छुप कर करता था. भैंस के लिए चारा लाना मेरा काम था. पर दूध पापा निकालते थे.

पंतगें उड़ाने का बड़ा शौक था मुझे. जब भी पतंग उड़ती तो मैं अपने आप को उस पतंग के साथ आसमान में उड़ाता हुआ पाता. हमेशा ऐसा हुआ है कि घर से पैसे चोरी कर मैंने अपने आप को उड़ाया है. मां की शादी का एक हार हुआ करता था. बहुत संभाल कर रखा था डैडी ने उसे. मैंने उसे चोरी कर लिया, फिर वही किया जो एक पेशेवर चोर करता है. मैं उसे बेच तो सकता नहीं था क्योंकि वो सोने का नहीं था पर बल्कि नोटों का हार था. दिन प्रतिदिन मैं काम की तरह ही चोरी करता. उस नोट का एक-एक हिस्सा तोड़ रहा था मैं. मैं सब जानता था लेकिन मेरी पतंगों के साथ उड़ने की चाहत में मैं सब भूल गया.

हमारे घर का मंदिर बड़ा था और हमारा घर छोटा था. मां बीमार ही रहती थी लेकिन सुबह शिवलिंग को जल चढ़ाये बिना नही मानती थी. मंदिर के आगे एक चौक से लिखा था कि “कृपया जूते बाहर उतारें.” जब मंदिर से पैसे चुराने होते थे तो मैं जूते नहीं उतारता था. नंगे पैर मुझे अपने मंदिर के ठंडे फर्श पर चलना अच्छा नहीं लगता था. ठंडे फर्श पर चलने से पैरों में एक ऐसी हरारत सी होती थी कि मानों मुझे कोई छू रहा हो. मंदिर के पास एक दराज थी. उसमें पूजा का सामान रखा जाता था. उसमें दो-दो रुपये के नोटोंवाला वही हार रखा रहता था जिसे मैं चोरी करता था. दराज़ पर हालांकि लॉक लगा हुआ था लेकिन उसे खुला ही रखा जाता था. उस दराज़ को खोलते ही कपूर की खूशबू आती थी. वो कपूर की खुशबू कई दिनों तक मेरी सांसों में समय-समय पर आती जाती रहती थी. मैंने धीरे-धीरे कदमों से वो सारा हार अपने मन को उड़ाने में उड़ा दिया.

गली के मोड पर जो लोग बैठते थे. वो मुझे बहुत शरीफ़ मानते थे. मोहल्ले में सबसे सुंदर बच्चा था मैं, लेकिन सबसे शैतान भी मैं ही था. जो मुझे मेरी शैतानियों से जानता था, वो कभी मुझे शरीफ़ नहीं मानता था. मैं बिना सोचे-समझे पत्थर-वत्थर मार दिया करता था. जो जानते थे वो डरते थे. जो नहीं जानते थे वो थोड़ा समय बाद डरने लगते थे.

गली की सीना मोड़ हुआ करता है. उस मोड़ पर गली के ही नहीं बल्कि पूरे मोहल्ले की सांसें चलती हैं. उन सांसों (नुक्कड़) को मैं बहुत अच्छे से जान गया था. मैंने सबके वहां बैठ-बैठ कर उनके उपनाम से जान लिया था. हमारे गांव में उपनाम (उल्टा नाम) एक ऐसा नाम होता है जिससे उसे बुलाने वाले को पहले एक झटका लगता है फिर वो झटका उस शख़्स को मिलता है जिसने उसका वो उपनाम पुकार रहा होता है. दौड़ता बहुत तेज़ था मैं. इसीलिए जब भी कोई गली-नुक्कड़ का लड़का या आदमी मुझे परेशान करता तो मैं उसका उपनाम पुकार कर भाग जाता था. इसके अलावा उस शख्स से जुड़ी कुछ ऐसी बातें भी पता चलती थी जिसका ज़िक्र आमतौर पर नहीं किया जाता. दौड़ते वक़्त ना जाने क्यों मुझे लगता था कि मेरी दौड़ ज़मीन से लग रही है.

एक दोपहर मैं दौड़कर सीधे छत पर आया और अपने पड़ोस के बच्चे को चरखड़ी पकड़ने के लिए बुलाया. वो मेरा चेला हुआ करता था, ऐसा मैं नहीं मोह्ल्ले वाले कहते थे लेकिन मैंने उसे हमेशा अपना दोस्त समझा है. मैंने नीचे से दो रुपये चोरी किए थे और जल्दी से जाकर एक कागज़ी और एक लिफ़ाफी पतंग ले आया मै. आज जल्दी-जल्दी में मंदीर की दराज खुली रह गई थी. डैडी ने वो सब देख लिया. मैं छत पर भरी दुपहरी में उड़ रह था. डैडी ने आवाज़ मारी, मैं नीचे गया. मेरी पतंग उड़ ही रही थी. डैडी ने सारी बात मम्मी को बता दी थी. रात को बहुत क्लेश हुआ. मेरा उस पतंग को उतारने का बिलकुल मन नहीं था. मैं चाहता था कि वो कागजी पतंग हमेशा मेरी छत पर टंगे अंटिने से बंधी रहे. रात को भी उड़ती रहे, हालांकि कई बार मैंने ऐसा किया भी है.

रात को मम्मी ने मेरी पतंगें और ‘चरखड़ा’ पानी में फेंक दिया. दो-तीन दिन तक मैं उदास रहा फिर से मैंने गली-नुक्कड़ पर बैठकर किस्से सुनना शुरु कर दिया. वो उम्र ऐसी थी, जहां एक ठहराव था, जहां सब कुछ धीरे-धीरे बदलता था. आज बहुत जल्दी मैं हैं हम, लेकिन वो उम्र गांठ की तरह लगती थी मुझे. वक्त ने धीरे-धीरे सारी गिरहें खोल दी.

आज भी जब मैं पतंगों को उड़ते देखता हूं तो बहुत से किस्से और मंदिर से पैसे चोरी करना याद आ जाता है मुझे. अब मैं नास्तिक हूं लेकिन मेरी आस्था पंतगों में बनी हुई है.

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