2 अक्टूबर 2018. छुट्टी का दिन यानी ‘लैपटॉप से आज़ादी’. और कोई नियम मानूं या ना मानूं लेकिन छुट्टी के दिन ‘नो लैपटॉप’ वाले नियम को किसी भी तरह फ़ॉलो ज़रूर करती हूं. ज़ाहिर है, फ़ेसबुक या ख़बरों पर भी ध्यान नहीं देती हूं. हां, WhatsApp चलता रहता है.
गांधी जयंती के नाम पर 1छुट्टी क़िस्मत वालों को मिलती है.
उसी छुट्टी का फ़ायदा उठा रही थी. WhatsApp Scroll करते-करते अचानक नज़र एक दोस्त के WhatsApp Profile Picture पर पड़ी. उसने ये तस्वीर लगा रखी थी.

एक पल को समझ नहीं आया कि आंखें ये क्या देख रही हैं? वेश-भूषा से ये कोई किसान लग रहा था. मगर ऐसा क्या हुआ कि वो लहुलुहान हो गया? फ़ेसबुक खोला तो हर तरफ़ किसानों के प्रति सहानुभूतियां और सरकार पर कीचड़ उछाला जा रहा था. मालूम हुआ कि,
‘हज़ारों किसानों को दिल्ली में घुसने से रोक दिया गया है और उन्हें रोकने के लिए Water Jets, आंसू गैस के गोले और लाठियों का भी प्रयोग किया गया है.’
मन बेचैन हो गया कि क्या ‘किसानों के देश’ में ही, ‘अच्छे दिन आएंगे’ के वादों तले किसानों के इतने बुरे दिन आ गए हैं कि उन पर लाठियां बरसानी पड़े?
एक ख़त अन्नदाता के लिए…
प्रणाम अन्नदाता,
मैं ठीक हूं. मुझे आपकी कृपा से 4-5 वक़्त का पर्याप्त भोजन मिल रहा है. रोज़ाना फल और मेवे भी मिल रहे हैं.
कैसे हैं आप? घर पर सभी कैसे हैं? खाना-पीना हुआ, या सवेरे से पेट में भूख लिए ही मेहनत कर रहे हैं? गर्मी काफ़ी हो रही है लेकिन सुबह मौसम सुहाना हो जाता है. तो इस बार कौन सी फ़सल की बुआई करने की सोची है?
शायद ये आख़िरी सवाल आपको दुखी कर दे. वर्तमान के दुखों और भविष्य की चिंता तले तुम्हारे कंधे झुक गए होंगे, ये यकीन है. सारी जमा-पूंजी आपने मिट्टी को सौंप दी. क्यों? क्या ज़रूरत थी उस मिट्टी में अपना ख़ून-पसीना, मेहनत लगाने की? जब आप इस बात को जानते थे कि कुछ नहीं होगा. इस बात को भी आप अच्छे से जानते थे कि सबका पेट भरने वाले को ही इस देश में उनका हक़ नहीं मिलता.

बड़े मंचों पर, सफ़ेदपोशों के कई वादे और आश्वासन सुनने से लेकर उनके पूरे न होने तक का सफ़र आपने कई बार तय किया है. सफ़ेदपोशों की शक़्लें बदलती हैं, वादे करने का लहज़ा बदलता है लेकिन आदत नहीं बदलती. ये सब जानते हुए किस तरह अपना काम करते रहे आप?
हर मौसम में उसी तरह प्यार और मेहनत से खेत में हल/ट्रैक्टर चलाना, बीज बोना, खाद-पानी डालना, फ़सल की देखभाल करना…
किसलिए? इसलिए कि उनके उचित दाम न मिले?
मैं ख़ुद एक किसान परिवार से हूं, दादी खेती करते थे लेकिन मेरे पिता ने एक प्राइवेट संस्था में नौकरी की और मेरे परिवार में खेती का काम बंद हो गया. मैंने करीब से धान और गेहूं देखा है. मुझे याद है घर पर मज़दूरों के चेहरे की वो ख़ुशी, जब अच्छी पैदावार होती थी.
तकनीक के अभाव में अभी भी आप लोग खेती में मुनाफ़ा नहीं कमा पा रहे, जबकि मेरे कई हमउम्र प्राइवेट नौकरियां छोड़ खेती की तरफ़ जा रहे हैं.

अगर आप सरकार से उम्मीदें कर रहे हैं तो भूल जाइए, वहां से आपको लाठियों और चक्करों और अब गालियों के अलावा कुछ नहीं मिलेगा. देखी हैं मैंने, किस तरह बैरियर के उस पर धोती-कुर्ते में खड़े आपके भाईयों को सोशल मीडिया पर कई लोग आतंकवादी बता रहे थे…
मैं क्या करूं अन्नदाता? बचपन से पढ़ते आए हैं और सुनते आए हैं कि ‘भारत किसानों का देश है’, कैसे, कहां ये सब कुछ समझ नहीं आया. क्योंकि ज़मीनी तौर पर तो सच्चाई बहुत अलग दिखती है. पूरी दुनिया का पेट भरने वाले आपको आज अपने हक़ के लिए खड़े होने पर भी लाठियां मिल रही हैं.
हो सके तो मुझे माफ़ कर दीजिएगा, मैं कीबोर्ड पर उंगलियां चलाने के अलावा आपकी कोई मदद नहीं कर सकती. भगत सिंह ने कहा था, ‘बहरों को सुनाने के लिए बम के धमाकों की ज़रूरत पड़ती है.’ पर हे! अन्नदाता यहां कोई भगत सिंह नहीं. वैसे ये कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि अंग्रेज़ों के ज़माने जैसे ज़ुल्म आज भी हो रहे हैं.
संचिता