1947 में हिंदुस्तान के बंटवारे ने सरहदों को बांटने के साथ-साथ लोगों को भी बांट दिया था. 1971 में इतिहास ने खुद को एक बार फिर दोहराया और हिन्द-पाक के बीच हुई लड़ाई में हिंदुस्तान की निर्णायक जीत के बाद बांग्लादेश का उदय हुआ.
इस जीत के साथ ही 1971 में भारत के हिस्से में एक ऐसा गांव शामिल हो गया, जो पहले पाकिस्तान का हिस्सा हुआ करता था. पहली नज़र में आप इस गांव को बंगाल के इर्द-गिर्द वाला हिस्सा मान सकते हैं, पर आपको जान कर ताज्जुब होगा कि ये गांव हिंदुस्तान के जम्मू-कश्मीर हिस्से के करीब था.

बंटवारे के समय जम्मू-कश्मीर के बाल्टिस्तान इलाक़े का तुरतुक गांव पाकिस्तान के हिस्से में चला गया था. सरहद पर होने की वजह से इस गांव में बाहर के लोगों का आना मना था, जिसकी वजह से ये गांव दोनों देशों से एक हद तक कटा हुआ था. किसी समय सिल्क रोड से जुड़े हुए इस गांव से चीन, रोम और फ़ारस तक व्यापार होता था. लद्दाख के करीब होने की वजह से इस गांव में मुस्लिम आबादी होने के बावजूद बौद्ध धर्म का असर साफ़ देखा जा सकता है. इसी वजह से इनके खान-पान और संस्कृति में साझेपन की झलक देखने को मिलती है.

इस गांव को भारत में मिलाने का श्रेय कर्नल रिनचेन को जाता है, जो इसी गांव के पास के रहने वाले थे. 1971 के दौरान यहां पहुंचे और उन्होंने तुरतुक के लोगों को समझाया कि भारत का हिस्सा बनने पर वो लोग ज़्यादा सुरक्षित रहेंगे. कर्नल रिनचेन के भरोसे पर इस गांव के लोगों ने भारत में शामिल होने का निर्णय लिया और बंटवारे के वक़्त तुरतुक की मस्जिदों में शरण ली.

इस गांव के लोगों में कर्नल रिनचेन को लेकर इतना सम्मान था कि जब वो सेना के साथ यहां आये, तो लोगों ने उनका नाच-गा कर स्वागत किया. आज भले ही ये गांव भारत का हिस्सा हो, पर देश के अन्य हिस्सों की तरह ही यहां भी मूलभूत सुविधाओं का अभाव साफ़ देखा जा सकता है. 3G और 4G के समय में भी इस गांव के लिए इंटरनेट और फ़ोन जैसी चीज़ें बिलकुल नई हैं.

हालांकि, लद्दाख के करीब होने की वजह से अब यहां सैलानी आने लगे हैं. अपनी ख़ूबसूरती और शांत वातावरण की वजह से ये कई लोगों की पहली पसंद भी बन चुका है. बौद्ध-मुस्लिम आबादी होने के बावजूद इस इलाके में 90 के कश्मीरी फ़साद का कोई असर नहीं पड़ा और इन लोगों ने अपनी साझा विरासत को बचाये रखा.
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