आपने कई अदाकारों के साक्षात्कार में सुना होगा कि उनके लिए कॉमेडी की एक्टिंग करना मुश्किल होता है. लोगों को रुलाना आसान है, हंसाने में मेहनत लगती है. यही हाल कवितायों का भी है, पढ़ने वाला मुश्किल से हंस पाता है और बड़ा कवि इस बात का ख़्याल भी रखता है कि उसकी लेखनी मर्यादित हो. जब ऐसे कवि की बात होगी, तो पहला नाम हमेशा ‘काका हाथरसी’ का लिया जाएगा.

प्रभुलाल गर्ग उर्फ़ काका हाथरसी, जन्म उत्तर प्रदेश हाथरस में हुआ था. वो उन चुनिंदा लोगों में से हैं, जिनका जन्मदिवस और पुण्यतिथि एक ही तारीख 18 सितंबर को हुआ था, जन्म का साल 1906 और 88 साल बाद 1995 को हमसे विदा हो गए. इस बीच उन्होंने जो कुछ भी रचा वो नायाब है.

ये तब की बात है, जब कवि मंचों पर हास्य कविता को तवज्जो नहीं दी जाती थी. गीतों और ग़ज़लों का दौर था. काका हाथरसी पहले कवि थे, जिन्होंने उसे कवि सम्मेलनों का हिस्सा बनाया. या यूं कहें कि उन्होंने नए दौर की शुरुआत कर दी. अब मुख्यरूप से हास्य कवि सम्मेलनों का भी आयोजन होने लगा है.

काका हाथरसी की अपनी शैली है, जिसे पहली कविता को पढ़ने के बाद से ही समझा जा सकता है. उनके बाद के कवियों ने उनकी नकल करने की कोशिश भी की, लेकिन सफ़लता उनके हाथ नहीं लगी. उनकी कविताओं की एक ख़ासियत ये भी थी कि उन्में व्यंग्य तो था, मगर कुंठा या अपमान नहीं था. वो व्यवस्था पर चोट करने में माहिर थे.

बहुत कम लोगों को पता है कि काका हाथरसी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे. हास्य कविताओं के अलावा संगीत पर भी उनकी मज़बूत पकड़ थी. उन्होंने तीन पुस्तकें भारतीय शास्त्रीय संगीत के ऊपर भी लिखी. संगीत के ऊपर लिखी किताबें वो ‘काका हाथरसी’ के नाम बजाय ‘वसंत’ नाम से लिखा करते थे.

‘संगीत’ पत्रिका जो शास्त्रीय संगीत और नृत्य पर केंद्रित थी, 78 सालों तक प्रकाशित हुई. इसकी स्थापना काका हाथरसी ने 1935 में की थी. 1932 में उन्होंने संगीत कार्यालय नाम के प्रकाशनालय की नींव रखी थी.

साहित्यिक क्षेत्र मे उनके योगदान को देखते हुए 1985 में उन्हें भारत सरकार ने पद्मश्री सम्मान दिया था. हर साल दिल्ली की हिन्दी अकादमी उनके नाम से काका हाथरसी सम्मान साहित्य क्षेत्र में काम करने वालों को देती है.

काका हाथरसी ने अपने पीछे एक पीढ़ी तैयार कर दी है, जो उन्हें अपना गुरु मानती है, उनका अनुसरण करती है. एक आदमी द्वारा हास्य कविता को चौक-चौराहे से उठा कर मंचों तक ले जाना और मंचों से पाठ्यपुस्तकों तक पहुंचाना कोई सामान्य बात नहीं है.

उनके इस योगदान के लिए उन्हें उनके नाम से न सही, उनकी शैली के रूप में ज़रूर याद किया जाएगा.