सब कुछ वैसा ही हो रहा था जैसा बैद्यनाथ ने सोचा था. बैद्यनाथ को फ़ोन आता है कि पन्ना लाल महतो आ रहा है. वो अपराधी जिसने अब तक झारखंड की 5,000 आदिवासी लड़कियों की तस्करी की थी. वो एक बार फिर से आदिवासियों को शहर में बेहतरीन जीवन यापन के झूठे सपने दिखा कर, अपने घिनौने इरादों को पूरा करने आ रहा था. पर इस बार बैद्यनाथ के चेहरे पर मुस्कान थी. जिस जाल को वो उस मानव तस्कर के इर्द-गिर्द पिछले 5 साल से बुन रहा था अब उसे अंतिम अंजाम तक पहुंचाने का समय था. बैद्यनाथ द्वारा पुलिस को सूचित करने के कुछ ही मिनटों में पन्ना लाल महतो गिरफ़्तार हो चुका था. बैद्यनाथ ने राहत की सांस ली.
महतो जैसे लोगों को अधिकारीयों के हवाले कर मदद करना और लोगों को न्याय दिलाना ही कुमार का अब जीवन उद्देश्य है. बीते 10 सालों में कुमार ने ऐसे कई महिलाओं और बच्चों को ऐसे दरिंदों से बचाया है. The better India के अनुसार, अब तक उन्होंने लगभग 4 हज़ार पीड़ितों को बचाया है.
बचपन में कुमार के साथ शारीरिक रूप से दुर्व्यवहार हुआ था. उनसे ज़बरदस्ती बाल मज़दूरी करवाई गई थी. इसलिए बड़े होने पर उन्होंने लोगों को वो मदद मुहैय्या करवाई जो उन्हें कभी नहीं मिली.
बिहार के समस्तीपुर ज़िले में जन्मे बैद्यनाथ कुमार को उनके माता-पिता ने 7 साल की उम्र में रांची अपने चाचा के यहां भेज दिया था. कुमार के माता-पिता बहुत गरीब थे. पढ़ाई तो दूर वे एक वक़्त के खाने का ख़र्च भी नहीं उठा पाते थे.
कुमार के माता-पिता को क्या पता था कि जिस परिवार पर इतना भरोसा करके वे अपने बच्चे को सौंप रहे हैं उनकी आर्थिक हालत उन से भी ज़्यादा दयनीय है. कुमार का दाखिला एक सरकारी स्कूल में हुआ था, फिर भी उसे पास की एक दुकान में वेटर की मज़दूरी करनी पड़ रही थी. ये बात 90 के दशक की है जब गावों में फ़ोन नहीं पंहुचा था. जिसकी वजह से कुमार के परिवार उसकी नई ज़िंदगी से रूबरू नहीं थे.
आने वाले समय में कुमार ने बहुत पढ़ाई की और अपना काम बदला.
2000 में कुछ यूपीएससी छात्रों के साथ हुई एक मुलाक़ात से उनके जीवन में काफ़ी कुछ बदल गया.
उस बात को याद करते हुए कुमार बताते हैं,
ढाबे के मालिक द्वारा मुझे मारा जाना मेरे लिए कोई नई बात नहीं थी. शारीरिक रूप से मार खाने की वजह से बहुत बार मैं कई दिनों तक बीमार रहता था. मैं 18 साल का भी नहीं था जब मेरी मुलाक़ात कुछ IAS की तैयारी कर रहे छात्रों से हुई. वे लोग अक्सर ढाबे पर खाने आते थे. एक दिन, मैंने उन्हें बाल मज़दूरी के बारे में बात करते हुए सुना. तब मुझे पता चला कि 18 साल से कम उम्र के बच्चों से काम करवाना गैर क़ानूनी होता है.
-बैद्यनाथ कुमार
IAS छात्रों की इस बातचीत ने कुमार को अन्य और 14 लड़कों से बात करने का हौसला दिया जो कि उसी जगह पर काम करते थे ताकि वह इस मुद्दे को उठा सकें. जल्द ही एक सीनियर पुलिस अधिकारी ने इस मामले में दख़ल दिया. हालांकि, उसने मालिक को कोई सज़ा नहीं दी लेकिन सभी नाबालिग बच्चों को घर जाने को कहा.
जब कुमार 18 वर्ष के हुए तो एक सिविल कोर्ट के ज़ेरॉक्स केंद्र में लगी उनकी नौकरी ने उनके पूरे जीवन की दिशा को ही बदल कर रख दिया. वे कई वकीलों से मिले और उनके दोस्त भी बने. इस दौरान वे उन लोगों से भी मिले जिनकी आंखों में न्याय की उम्मीद ही खो गई थी. इन लोगों की आंखों में कुमार ने वो लाचारी देखी जो उन्होंने अपने बचपन में महसूस की थी.
उन्होंने अपने वकील-दोस्तों से क़ानूनी मदद की गुहार लगाई और 2004 में एक NGO दिता सेवा संस्थान शुरू किया जिसका उद्देश्य महिलाओं और बच्चों की शिक्षा पाने में मदद करना था. कुमार के पास ना कोई जगह थी ना रुपये और ना ही कोई कनेक्शन. जब उन्होंने ये संस्थान शुरू किया था, राज्य बाल कल्याण विभाग और पंचायत समितियों ने वित्तीय सहायता प्रदान करने के लिए उन पर कोई भरोसा नहीं किया.
धीरे-धीरे कुमार ने अधिकारियों का भरोसा जीता और उन्हें इस बात का पूर्ण यकीन दिलाया कि वह सच में लोगों की मदद करना चाहते हैं ख़ासतौर से उन बच्चों की जो बाल मज़दूरी के शिकार हैं.
उन्होंने वंचित महिलाओं को सेल्फ़ हेल्प ग्रुप बैंक लिंकेज प्रोग्राम्स तक पहुंचने में भी मदद की है. उन्होंने 1,000 से ज़्यादा बच्चों को ‘ब्रिज स्कूल’ में भी पढ़ाया है.
कुमार बताते हैं,
जब कोई बच्चा स्कूल से बाहर निकलता है तो सरकार द्वारा संचालित अनौपचारिक ब्रिज स्कूल उन्हें उस वर्ष के शैक्षणिक पाठ्यक्रम को पूरा करने में मदद करती है ताकि उन्हें फिर से साल ना दोहराना पड़े. रांची के ज़िला पंचायत ने मुझे ड्रॉपआउट बच्चों को सिखाने के लिए एक छोटा कमरा दिया था.
बच्चों को तस्करी से बचाने का उनका यह सफ़र तब शुरु हुआ जब उनके बच्चे स्कूल से ड्रॉपआउट होने लगे. इस बारे में कुमार बोलते हैं कि, “मैं उनके घर गया था और वहां मुझे पता चलता है कि वे सब गायब हैं.”
कुमार ने झारखंड में हो रही बड़े पैमाने में बाल तस्करी के कुछ भयानक तथ्य भी बताए, ‘झारखंड को भारत का ट्रैफिकिंग हब कहा जाता है. 2005-2015 से 4,000 से अधिक बच्चे (ज़्यादातर आदिवासी परिवारों से) लापता हो गए हैं. लगभग 1,000 बच्चों का तो कोई अता-पता ही नहीं है. अक्सर, परिवार की स्थिति में सुधार के बहाने या युवा लड़के और लड़कियों को दिल्ली जैसे बड़े शहरों का लालच दिया जाता है. ‘किंगपिन’ जैसे अपराधियों के ज़रिए वे घरेलू मदद, ड्राइवर, सफाईकर्मी और कुछ मामलों में तो सेक्स वर्कर तक बन जाते हैं.’
2012 की शुरुआत में कुमार ने एंटी- ट्रैफ़िकिंग कानूनों के बारे में खोज की और झारखंड की एंटी-ट्रैफ़िकिंग यूनिट को अपने स्कूल में पढ़ाने वाले नाबालिगों के खो जाने के बारे में सूचना भेजना शुरू कर दी.
बैद्यनाथ बताते हैं, ‘क्योंकि इनमें से अधिकतर इलाके नक्सल प्रभावित हैं जिसकी वजह से माता-पिता को पुलिस स्टेशन जाने में डर लगता है. तो गांव वालों को में अपना नंबर दे आता हूं. जल्दी ही मेरा ये कार्य अधिकारियों की नज़र में आ गया और उन्होंने मुझे छापे में सहयोग करने के लिए कहा.’
ऐसे ही एक छापे में सुहानी (बदला हुआ नाम) को उसके माता-पिता के साथ हमने दोबारा मिलवाने में मदद की. लड़की को राजवीर (बदला हुआ नाम) ने लालच दिया था. एक आदमी जिसने दिसंबर 2016 में दिल्ली में एक किंगपिन को लड़कियों को बेचा था. रामगढ़ ज़िले के निवासी, दिहाड़ी मज़दूरों की बेटी यह समझ ही नहीं पाई की जिसने उससे शादी करने का वादा किया उसने उसे दिल्ली में बेच डाला.
राजवीर ने उस लड़की को 1 लाख रूपए में बेचा था और उसे प्रॉस्टीटूशन के लिए मज़बूर किया गया. उसके पास प्रतिदिन 18 से 20 लोग आते थे और यदि उसके ग्राहकों की प्रतिक्रिया अच्छी नहीं होती थी तो उसे भूखा रखा जाता था. रोने या विरोध करने पर लड़की को ज़ंजीर में बांधकर रखा जाता था.
इस बीच उसके माता-पिता ने पुलिस में गुमशुदगी की शिकायत दर्ज करवाई और फिर कुमार से संपर्क किया.
सुहानी के फ़ोन को ट्रेस करने पर पूरा रहस्य सुलझ गया.
इस बारे में बात करते हुए बैद्यनाथ बताते हैं कि, “यह एक व्हाट्सएप ग्रुप पर चलने वाला एक अच्छी तरह से जुड़ा सेक्स रैकेट था. राजवीर का नंबर ग्रुप के एक नंबर से मेल खाता था. हमने ग्राहकों के रूप में प्रस्तुत होकर लड़के से संपर्क किया, ठिकाने पर छापा मारा और 15 लड़कियों को बचाया, जो सुहानी की तरह शिकार हुई थीं. कई युवा लड़के अक्सर लड़कियों के नंबर प्राप्त करते हैं और उन्हें व्हाट्सएप पर सीधे संदेश भेजते हैं.”
बैद्यनाथ ये भी बताते हैं कि किस तरह सोशल मीडिया के फैलते जाल ने हाल के दिनों में तस्करी के कारोबार को कम जोखिम भरा बना दिया है और ज़्यादातर मामलों में पीड़ित का पता लगाना लगभग असंभव हो जाता है क्योंकि सिम कार्ड और फ़ोन नष्ट कर दिया जाता है.
एक वर्ष में तस्करी विभाग ने बैद्यनाथ की मदद से 240 FIR दर्ज करने में सफ़ल रही हैं. उन्होंने 200 प्लेसमेंट एजेंसियों की एक सूची भी तैयार की, जो संभावित तस्कर हो सकते हैं. इतना ही नहीं कुमार को दिल्ली पुलिस बल से प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए दिल्ली भी भेजा गया था.
छापे की प्रक्रिया के बारे में जानकारी देते हुए कुमार कहते हैं कि किंगपिन को पकड़ने के दो तरीके होते हैं.
‘पहला तरीका, रेलवे स्टेशनों और बस स्टैंडों पर जाना जहां से लड़कियों को दूसरे राज्यों में पहुंचाया जाता है. मैं आधी रात के आसपास जाता हूं और क्षेत्रों का निरीक्षण करता हूं. जैसे ही कोई संदिग्ध हरकत देखता हूं तो मैं तुरंत पुलिस बल और एंटी-ट्रैफिकिंग दल को बुलाता हूं और उन्हें मौके पर पकड़ते हैं.’
दूसरे तरीके में कुमार खुद एक ग्राहक बन जाते हैं और एक झूठी पहचान के साथ व्हाट्सएप ग्रुप में शामिल हो जाते हैं. बादशाहों का विश्वास हासिल करने के लिए कुमार अक्सर उनके खातों में रुपये भी डाल देते हैं.
लड़कियों को बचाने के बाद पीड़ितों को या तो उनके माता- पिता के घर भेज देते हैं या फिर बाल कल्याण समितियों द्वारा Rehabilitate किया जाता है. समाज के कमज़ोर वर्गों की लड़कियों को अक्सर कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालय भेजा जाता है जो कि सरकार द्वारा संचालित है.
छापे के बाद बैद्यनाथ की नौकरी यहीं नहीं खत्म होती. अपनी व्यक्तिगत संतुष्टि के लिए कुमार कुछ समय के लिए माता-पिता और लड़कियों से मिलते रहते हैं ताकि वह दोबारा से उस जाल में ना फंस जाए.
अपने इस काम की वजह से कुमार को बहुत बार जान से मारने की धमकियां भी आई हैं. इस बारे में बात करते हुए बैद्यनाथ कहते हैं, “मरने का डर मेरे जीवन से बहुत पहले ही ख़त्म हो गया था और शायद यही वो वजह है जो मुझे ऐसा काम करने की शक्ति देती है. हर किसी को कभी न कभी तो मरना ही है और मैं कोई अच्छा काम करके इस दुनिया से जाना चाहता हूं. इस तरह की धमकियां मुझे मेरा काम करने से नहीं रोक सकती हैं.”