कल अचानक ही ऑफ़िस में बैठे-बैठे सबने पास ही लगे मेले में जाने का प्लान बन गया और शाम को ऑफ़िस का काम ख़त्म करके हम सब निकल गए मेला देखने. वहां तरह-तरह के झूले लगे हुए थे. उन पर बैठे लोग खूब चिल्ला रहे थे. कोई झूले के ऊंचा जाने पर सीटी बजा रहा था, तो कोई डर के मारे आंख बंद किये हुए हैंडल को पकड़े बैठा था. वहीं कोई अपने एक्सप्रेशंस से ये दिखाने की कोशिश कर रहा था कि उसको डर नहीं, लग रहा है, जबकि डर उसकी आंखों में दिख रहा था.

बस फिर क्या था हम सबके अंदर भी जोश चढ़ गया और बैठ गए बड़े वाले झूले यानि जाइंट व्हील में. फिर एक-एक करके ज़्यादातर झूलों में बैठे और ख़ूब मज़ा किया.

लगभग 10 साल बाद इस मेले में जाकर मुझे अपने बचपन वाला मेला याद आ गया, जब:

चार दिन पहले शुरू हो जाती थी तैयारी

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बचपन वाला मेला, जिसमें जाने की तैयारी 4 दिन पहले से ही होने लगती थी. मन ही मन ख्याली पुलाव बनने लगते थे कि क्या-क्या करना है मेले में जाकर. पिछली बार जो झूले रह गए थे, इस बार वो भी झूलने हैं. स्कूल से लौटते वक़्त दोस्तों से मेले के बारे में बात करते हुए आना.

होती थी झूलों की भरमार

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मेलों का एक दौर वो भी था, जब शहर में दो या तीन मेले लगते थे. नए कपड़े पहन कर सारे भाई-बहन पापा के साथ मेला देखने जाते थे. मेले की चकाचौंध देखकर बस लगता कि दुनिया में इससे बड़ा मेला हो ही नहीं सकता. बचपन वाले मेलों में झूलों की भरमार होती थी, कि ख़त्म ही नहीं होते थे.

जब तक हर झूले पर बैठ नहीं जाते, तब तक मेला पूरा ही नहीं होता था. भले ही डर के कारण आंखें बंद हो जाएं, लेकिन बिना झूले तो रहना ही नहीं होता था. मैं उस सबसे बड़े और गोल वाले झूले को तो कभी भूल ही नहीं सकती थी, जिसमें बैठ कर पूरे शहर के दर्शन हो जाते थे.

मेले से वो मिट्टी के खिलौने खरीदना

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अब जब झूला झूल लेते थे, तब आती थी खिलौनों की बारी. मेले में मिलने वाले वो मिट्टी के खिलौने वाले बर्तन, हाथी-घोड़ा तो खरीदते ही थे. इसके अलावा तीर-कमान और तलवार खरीदना तो ज़रूरी होता था. घर जाकर हम भाई-बहनों के बीच राम-रावण का युद्ध भी तो होना होता था. और दो-तीन दिन ये तीर-कमान इतने प्यारे होते थे कि जहां मैं वहां मेरे तीर-कमान और फिर तीर कहीं और कमान कहीं.

मेले में मिलने वाली चाट का स्वाद ही अलग होता था

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अब मेले में जाएं और चाट-पकौड़ी, आइसक्रीम न खाएं, ये तो होना संभव ही नहीं था. क्योंकि मम्मी को बोल कर जो आते थे कि आज हम बाहर खाना खाएंगे. चाट के ठेले पर पहुंचकर जब तक अपने हाथ में आलू-टिक्की का पत्तल नहीं आ जाता, तब तक मुंह में पानी लिए कभी चाट वाले को, तो कभी उसके तवे पर फ़्राई होती टिक्की को निहारते थे कि कब ये मेरे हाथ में आये और हम उसे खाएं. तब ये लगता था कि इससे टेस्टी दुनिया की कोई चीज़ हो ही नहीं सकती. वापस लौटते हुए आइसक्रीम खाना कभी नहीं भूलते थे.

अब होते हैं हाईटेक मेले

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सच क्या खूब थे वो बचपन के दिन. मेले तो आज भी खूब लगते हैं, पर वो बात नहीं इन मेलों में जो तब हुआ करती थी. आज के मेलों में वो देसीपन नहीं रहा, जो बचपन वाले मेलों में होता था. मेलों पर आधुनिकता का पर्दा पड़ चुका है. आज के मेलों हाईटेक झूले, खाने के लिए चाउमीन, मोमो और चाइनीज़ खिलौनों की भरमार हो गई है. लेकिन इसमें कोई बुराई नहीं है, क्योंकि बदलाव तो सृष्टि का नियम है और जब हर चीज़ आधुनिक हो रही है, तो मेले भी तो आधुनिक ही होंगे.

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मगर यहां सोचने वाली बात ये हैं कि शायद आज हम और आप दौड़ती-भागती ज़िन्दगी और दूसरों से आगे बढ़ने की रेस में जीवन के इन रंगों को जीना मानों हम भूलते जा रहे हैं. सोचते ही रह जाते हैं कि टाइम निकाल कर जाएंगे मेला देखने, लेकिन आजकल-आजकल करते-करते वक़्त कब गुज़र जाता है, पता ही नहीं चलता है और फिर अफ़सोस ही रह जाता है.

चलते-चलते एक सवाल कि जीवन की भाग-दौड़ में हम इन छोटी-छोटी खुशियों को दरकिनार क्यों कर रहे हैं?