स्कूल की छुट्टी वाले दिन भी सुबह जल्दी उठ कर जिस दिन लड़कियां छोटे-छोटे हाथों में चूड़ियां पहन कर तैयार हो जाती हैं, वो दिन होता है ‘कन्या-पूजन’ या ‘कंजक’ का. अष्ठमी या नवमी के दिन नवरात्रि में लड़कियों की पूजा करने का और उन्हें घर बुला कर हलवा, चना और पूड़ी खिलाने का रिवाज़ उत्तर भारत के कई हिस्सों में होता है.

इस दिन नौ लड़कियों को माता के नौ रूप मान कर पूजा जाता है. इनके साथ ही पूजा जाता है एक लड़के को भी, जिसे ‘भैरों’ बाबा’, ‘लंगूर’, ‘बन्दर’, आदि कहा जाता है. आप भी बचपन में कभी कन्या पूजन में गए होंगे. आइये याद करते हैं इससे जुड़ी कुछ खट्टी-मीठी यादों को.

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मुझे याद आता है इस दिन से पहली वाली रात में ही हम ये सोच कर सोते थे कि कल कौन-से कपड़े पहनेंगे. इस दिन के लिए कोई ख़ास ड्रेस होना भी ज़रूरी होता था. सभी लड़कियां छोटी-छोटी लहंगा-चुनरी पहन कर अगले दिन सुबह ही तैयार हो जाती थीं. एक दिन पहले ही पड़ोस की आंटियां बुकिंग करना शुरू कर देती थीं. जिन घरों में छोटी लड़कियां हुआ करती थीं, वहां पहले ही बात कर ली जाती थी कि कल बच्चियों को हमारे यहां इतने बजे भेज देना.

एक आंटी के घर का खाना मुझे बहुत पसंद था, उनके यहां खाना खाने के लिए पेट में जगह बची रहे, इसलिए हर जगह कम-कम खाती थी. आकांक्षा थपलियाल

उस दिन ही अहसास होता था अपनी Importance का, लगता था आज तो हमसे बढ़ कर कोई नहीं है. जिसे देखो हमें अपने घर ले जाना चाहता है. सुबह सात बजे से जो घर-घर जा कर खाना शुरू होता था, वो दोपहर एक बजे तक भी जारी रहता था. कुछ घर जाने-पहचाने होते थे और कुछ अनजान, पर उस दिन हर घर में ऐसे ट्रीट किया जाता था, जैसे सब अपने हों.

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पेट तो एक दो घर के बाद ही भर जाता था, ऐसे में जब कोई आंटी खाने के लिए फ़ोर्स करतीं, तो हम कह देते थे कि अभी न हमें और जगह भी जाना है.घर से एक छोटा पर्स भी साथ लेकर निकलते थे, ताकि कंजक में मिले पैसों को संभाल कर रख सकें.राशि

लोग अपने-अपने घरों के दरवाज़ों पर खड़े रहते थे कि कहीं कन्याएं जाती दिखें, तो उन्हें अपने घर बुला लें. किसी के घर जाने पर शुरुआत होती थी पैर धुलाए जाने से. इसके बाद शुरू होती थी कन्याओं की पूजा और फिर उन्हें हलवा, पूड़ी, चना परोसा जाता था. इतने घरों में खा-खा कर हाल कुछ ऐसा हो जाता था कि पेट में ज़रा भी जगह नहीं बचती थी. एक चीज़ का इंतज़ार रहता था, जो सबसे आखिर में मिलती थी. खाने के आखिर में क्या गिफ़्ट मिलेगा, या कितने पैसे मिलेंगे, इसकी बड़ी एक्साइटमेंट रहा करती थी.

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‘बचपन में पेट भर जाने के बाद भी अगर कोई कन्या-पूजन के लिए बुलाता था, तो हम पैसों और गिफ़्ट के लालच में चले जाया करते थे. आकांक्षा तिवारी

कहीं एक रुपया, कहीं दो रुपये, तो कहीं मिलता था पांच का सिक्का. वो भी दिन थे, जब वो पांच का सिक्का बहुत बड़ी दौलत हुआ करता था. कुछ जगहों पर पेंसिल बॉक्स, टिफ़िन, चूड़ियों, बिंदियों, चुनरियों जैसे तोहफ़े भी मिल जाया करते थे, तब तो ख़ुशी का ठिकाना ही नहीं रहता था.

इस दिन हमें लड़कों को चिढ़ाने का मौका मिल जाता था. लगता था लड़की होने में ही फ़ायदा है.अनुराधा
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नौ लड़कियों के साथ जिस एक लड़के की पूजा की जाती थी, उसकी भी बड़ी डिमांड रहती थी. अकेला होने के कारण सबका खूब लाड-प्यार भी मिलता था. एक के बाद एक कई घरों में प्रसाद खाने के बाद, हम इसकी गिनती भी भूल जाया करते थे कि कितने घरों में जा चुके है. इस दिन घर से निकलते तो खली हाथ थे, पर लौटते थे तो हाथ में होते थे तोहफ़े और पैसे. घर आ कर गिनते थे कि आज कितने पैसे मिले. शाम को जब सब लड़कियां दोबारा मिलतीं, तो इसी पर बात होती कि किस-किस को क्या-क्या मिला.

दीदी यूं तो अपनी दोस्तों के साथ ही खेलती थी और मुझे कभी शामिल नहीं किया जाता था, पर इस दिन सबके साथ जगह-जगह जाने का मौका मिल जाता था.जयंत
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बच्चों के लिए ये नवरात्रि का सबसे ख़ास दिन हुआ करता था. बड़ों के लिए ये श्रद्धा, पूजा-पाठ और व्रत करने के दिन होते थे, पर बच्चों के लिए तो बस इसी दिन की मान्यता होती थी. उन दिनों हमें न धर्म का मतलब पता था, न पूजा-पाठ के मायने, पर तब हम द्वेष और धर्म के नाम पर नफ़रत से भी दूर थे. कभी-कभी लगता है कि बचपन ही अच्छा था, जब धर्म भी बस मिलने-जुलने और साथ खेलने का बहाना हुआ करता था.