सरधना की रानी: बेगम समरू
अगर आप भी बेगम समरू के नाम से वाक़िफ़ नहीं हैं तो बता दें कि दिल्ली के चावड़ी बाज़ार की वो नगरवधू जो एक सिपाही के प्यार में पड़कर सरधना सल्तनत की मलिका बनीं.
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मेरठ से क़रीब 24 किमी की दूरी पर स्थित सरधना का गिरजाघर विश्व प्रसिद्ध है. ये वही गिरजाघर है जिसमें बेनज़ीर ख़ूबसूरती की मलिका बेगम समरू की रूह बसती है. अपनी अद्भुत कारीगरी के लिए मशहूर ये गिरजाघर अपने भीतर एक ऐसी दिलेर महिला की कहानी को संजोए हुए है जो नगरवधू से प्रेमिका प्रेमिका से पत्नी फिर पत्नी से सरधना सल्तनत की मलिका बनीं.
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चलिए 48 साल तक सरधना सल्तनत पर अपनी हुकूमत चलाने वाली बेगम समरु की दिलचस्प कहानी को जानते हैं-
बात सन 1767 की है. कहानी दिल्ली के चावड़ी बाजार इलाक़े से शुरू होती है. जो 18वीं सदी में नगरवधुओं का मोहल्ला हुआ करता था. इस दौरान कई सैनिक यहां के कोठों पर मनोरंजन के लिए आया करते थे. इन्हीं में से एक वॉल्टर रेनहार्ड सोम्ब्रे भी था.
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दरअसल, इसी दौरान फ़्रांस का एक किराए का सैनिक वॉल्टर रेनहार्ड सोम्ब्रे भी लड़ाई के बाद दिल्ली में रुका हुआ था. सोम्ब्रे मुगलों की ओर से अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ लड़ रहा था. जो बेहद खुंखार माना जाता था. इसीलिए उसे ‘पटना का कसाई’ भी कहा जाता था.
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एक दिन वॉल्टर सौम्ब्रे भी चावड़ी बाजार के रेड लाइट एरिया में नगरवधू की हवेली पर पहुंचा. इस दौरान उसकी नज़र तबले की थाप पर थिरकती एक ख़ूबसूरत लड़की पर पड़ी. वॉल्टर को इस लड़की से पहली नज़र में ही प्यार हो गया. ये लड़की कोई और नहीं बल्कि 14 साल की फ़रज़ाना (बेगम समरू) थीं. फ़रज़ाना की मां चावड़ी बाज़ार की नगरवधू हुआ करती थी. जो उसे चावड़ी बाज़ार की मशहूर नगरवधू खानम जान के सुपुर्द कर इस दुनिया से रुख़सत हो गई थीं.
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इस दौरान फ़रज़ाना से उम्र में 30 साल बड़े वॉल्टर ने उसे अपनी प्रेमिका बनाने का प्रस्ताव रखा जिसे फ़रजाना ने बेदर्दी से ठुकरा दिया. इसके बाद फ़रज़ाना ने प्रस्ताव रखा कि अगर मेरे से तलवारबाज़ी में जीत गये तो मैं आपके साथ जीवन बिताउंगी लेकिन हारे तो आपको मुझसे धार्मिक तरीके से विवाह करना होगा. फ़रजाना को भी वॉल्टर के प्यार हो गया.
फ़रज़ाना चांदनी चौक की रौनक को हमेशा के लिए छोड़ अपने आशिक के साथ एक ऐसे लंबे सफ़र पर भाग निकली, जिसकी मंजिल आसान न थी. इसके बाद वॉल्टर और फ़रजाना लखनऊ, रुहेलखंड, आगरा, भरतपुर और डींग होते हुए आख़िर में सरधना पहुंचे.
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इस दौरान खानम जान के गुंडे ने उनका पीछा करते हुए सरधना पहुंच गये, लेकिन फ़रज़ाना ने ख़ुद लड़ते हुए इन गुण्डों को मौत के घाट उतार दिया. उसकी हिम्मत देख वॉल्टर सोम्ब्रे फ़रज़ाना की बहादुरी का दीवाना हो गया. वॉल्टर जो कल तक सिर्फ़ फ़रज़ाना के ख़ूबसूरत शरीर का दीवाना था वो आज उसकी मोहब्बत और हिम्मत का कायल हो गया था. समय के साथ जब इन दोनों का इश्क़ परवान चढ़ने लगा था उन्होंने ईसाई धर्म के तहत विवाह कर लिया और सोम्ब्रे उपनाम को अपना कर फ़रज़ाना ने अपना नाम समरू बेगम रख लिया.
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इस दौरान मुगल बादशाह शाह आलम के कहने पर वॉल्टर सोम्ब्रे ने सहारनपुर के रोहिल्ला लड़ाके जाबिता ख़ान को शिकस्त दी. इससे ख़ुश होकर शाह आलम ने दोआब में एक बड़ी जागीर वॉल्टर सोम्ब्रे के नाम कर दी. इसके बाद वॉल्टर अपनी पत्नी समरू बेगम के साथ सरधना में ही बस गया. विवाह के 5 साल बाद अचानक वॉल्टर सोम्ब्रे की मौत हो गई. 18 यूरोपीय अफ़सरों और 4000 सैनिकों वाली उसकी फ़ौज की कमान समरू बेगम ने अपने हाथों में ले ली.
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सन 1822 में बेगम समरु ने अपने फ़्रांसीसी पति की याद में सरधना में विशाल कैथोलिक गिरिजाघर का निर्माण कराया था. इटली के कारीगरों ने 2700 सोने की मोहर लेकर पत्थरों पर कई शानदार मूर्तियों को उकेरकर इस गिरिजाघर का निर्माण किया.
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बेगम समरू को जुबेन्निशा के नाम से भी जाना जाता है. पत्नी होने के साथ-साथ बेगम समरू हथियार चलाने में निपुण थीं. यही कारण था कि वो 48 साल तक सरधना सल्तनत की मलिका रहीं.