महाभारत के सबसे लोकप्रिय चरित्र भीष्म पितामह को कौन नहीं जानता? आज भी जब कोई कठिन प्रतिज्ञा लेता है, तब कहता है, ‘मैंने भीष्म प्रतिज्ञा ली है.’ आजीवन ब्रम्हचर्य का पालन और कभी राजा न बनने की कठिन प्रतिज्ञा लेने वाले भीष्म भारतीय जनमानस में अमर हैं.
मॉडर्न पॉलिटिक्स में भी ऐसे ही एक राजनीतिज्ञ हैं, जिनका जीवन महाभारत के भीष्म पितामह से मिलता-जुलता है.
लाल कृष्ण आडवाणी मॉडर्न इंडियन पॉलिटिक्स के भीष्म पितामह हैं. सिंहासन के लिए सबसे योग्य होने पर भी सत्ता से कोसों दूर रहने की पीड़ा सबसे ज़्यादा इन्होंने झेली है. पितामह भीष्म भी हस्तिनापुर में राजा के मार्गदर्शक मंडल में थे और आडवाणी जी भी रूलिंग पार्टी के मार्गदर्शक मंडल में हैं.
आइये जानते हैं कुछ समानताएं, जो इन्हें एक जैसा बनाती हैं
सत्ता से कोसों दूर

भीष्म में राजा बनने की सारी योग्यताएं थीं. बड़े-बड़े राजाओं को उन्होंने हराया था. उन्होंने कई बार हस्तिनापुर की रक्षा करने के लिए अपने प्राणों की बाजी लगाई.
महाभारत के युद्ध में जिस ओर उनका रथ मुड़ जाता था हाहाकार मच उठता था. उनके जीवित रहते पांडव कभी युद्ध नहीं जीत सकते थे. हस्तिनापुर के साम्राज्य को मज़बूत बनाने में भीष्म का योगदान अतुलनीय था. हस्तिनापुर के सबसे वीर राजकुमार होने पर भी उन्हें सत्ता कभी नहीं मिली.

आडवाणी जी ने भी भारतीय जनता पार्टी को कई बार मुश्किल दौर में संभाला. 1984 में जब भारतीय जनता पार्टी केवल दो सीटों पर सिमट गई थी, तब आडवाणी जी ने ही पार्टी को राष्ट्रीय पटल पर दोबारा खड़ा करके 1996, 98 और 99 में सरकार बनवाई थी. इसमें अटल जी का भी योगदान था, लेकिन किंग मेकर होने के बाद भी आडवाणी जी का सत्ता त्याग, भीष्म के त्याग से कम न था. आडवाणी जी पार्टी को राष्ट्रीय स्तर की पार्टी बनाने के लिए जी जान से जुट गए. पार्टी राष्ट्रीय फ़लक पर छा भी गई, लेकिन आडवाणी जी मेन स्ट्रीम पॉलिटिक्स से दूर हो गए. उनके हाथ में सत्ता कभी नहीं आई.
राजनैतिक विवशता

दुर्योधन के सत्ता पर हावी होने के बाद से ही भीष्म की उपेक्षा शुरू हो गई. महाराज धृतराष्ट्र पुत्र मोह में इतने जकड़े थे कि वे नीति-अनीति का भेद नहीं कर पा रहे थे. जब भीष्म उन्हें सही राह दिखाते, तो वे उनके सुझावों को अनसुना कर देते. उनकी इस तरह से उपेक्षा युवा धृतराष्ट्र ने कभी नहीं की थी. यह समय ही था, जिसने उस समय के सबसे बड़े योद्धा को राजनीतिक रूप से अक्षम बना दिया था. एक समय में हस्तिनापुर साम्राज्य के संरक्षक रहे भीष्म अपने जीवन के उत्तरार्ध में असहाय हो गए थे.

10 जून 2013 को कई समाचार पत्रों में आडवाणी जी के नाराज़ होकर पार्टी से त्यागपत्र देने की बात छपी. उन दिनों अख़बारों और टीवी चैनलों पर ये ख़बरें खूब चलीं कि प्रधानमंत्री उम्मीदवार के रूप में नरेन्द्र मोदी को चुने जाने से वो नाराज़ हैं.
इस पत्र में तात्कालीन पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह को उन्होंने अपना त्यागपत्र सौंपा था. इसके बाद पार्टी में सनसनी फैल गई. नरेन्द्र मोदी, राजनाथ सिंह, नितिन गडकरी सब आडवाणी जी को मनाते नज़र आये. हालांकि, बाद में अडवाणी जी मान भी गए थे.
भारतीय राजनीति में मोदी युग की शुरुआत के बाद से ही धीरे-धीरे आडवाणी जी सक्रिय राजनीतिक पटल से गायब होने लगे. उन्हें सक्रिय राजनीति से सम्मानपूर्वक हटा कर मार्गदर्शक मंडल में भेज दिया गया. आज के ज़माने में किसी का मार्गदर्शन कौन मानता है? मार्गदर्शक मंडल में भीष्म भी थे और आडवाणी जी भी हैं, यह समानता भी उन्हें भीष्म जैसा बनाती है.
योग्य थे, पर सत्तारूढ़ नहीं

गंगा और महाराज शांतनु के पुत्र थे भीष्म. राजा के सबसे बड़े और योग्य पुत्र होने के कारण सिंहासन के सबसे प्रबल दावेदार भीष्म ही थे. भीष्म अगर आजीवन ब्रम्हचर्य और कभी राजा ना बनने की प्रतिज्ञा न लेते, तो हस्तिनापुर के राजा वही बनते. उनकी योग्यता, प्रतिज्ञा के हाथों विवश थी.

जनवरी 2009 के लोकसभा चुनावों में अगर एनडीए चुनाव जीतती, तो प्रधानमंत्री आडवाणी जी ही बनते. अटल बिहारी वाजपेयी जी के राजनीति से संन्यास लेने के बाद सबसे योग्य उम्मीदवार वे ही थे. कांग्रेस की आंधी में जनता ने उन्हें नकार दिया.2014 के लोकसभा चुनावों में मोदी मैजिक चल रहा था, तो कौन उनकी बात करता. एक उम्मीद ज़रूर थी उनके मन में कि उन्हें राष्ट्रपति बना दिया जाएगा, लेकिन न जाने ऐसी ख़राब किस्मत कैसे हो गई, जो उनका नाम बाबरी विध्वंस केस में 25 साल बाद दोबारा आ गया. अब किसी के ख़िलाफ़ आपराधिक मुक़दमा दर्ज़ हो उसे राष्ट्रपति कैसे बनाया जा सकता है? लग रहा है अब सक्रिय राजनीति से आडवाणी जी अधूरे अरमानों के साथ विदाई लेंगें. उनका प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति बनने का अरमान टूट जो अधूरा रह गया.
बिना राजतिलक के सबसे ज़्यादा सम्मान

भीष्म पितामह का राजतिलक आजीवन नहीं हुआ, लेकिन उन्हें सम्मान सबसे ज़्यादा मिला. कौरव हों, चाहे पांडव कोई उनकी बात नहीं टालता था. कई बार उनकी आज्ञा मानने के लिए महाराज धृतराष्ट्र भी विवश हो जाते थे.

आडवाणी जी भी पार्टी में बहुत दिनों तक शक्तिशाली रहे. 5 फ़रवरी 2002 से 22 मई 2004 तक उप-प्रधानमंत्री रहने वाले लाल कृष्ण आडवाणी, अटल जी के बाद भारतीय जनता पार्टी में सबसे बड़ी हैसियत वाले व्यक्ति थे. पार्टी द्वारा लिए गए सभी महत्वपूर्ण फैसलों में इनका मत भी महत्वपूर्ण होता था. कई विभागों पर तो इनका एकाधिकार भी था, लेकिन पितामह भीष्म की तरह इनका भी कभी राजतिलक नहीं हुआ.
सत्ता परिवर्तन के बाद मिली उपेक्षा

धृतराष्ट्र देख नहीं सकते थे. पितामह भीष्म के सामने ही वे बूढ़े हो चले थे. दुर्योधन तेज़ी से साम्राज्य पर एकाधिकार बना रहा था. प्रत्यक्ष शासन वैसे तो धृतराष्ट्र का था, लेकिन परोक्षतः दुर्योधन ही राजा था. विदुर और अन्य मंत्रियों की बात को दुर्योधन अनसुना करने लगा था. पितामह भीष्म यह सब देख कर भी चुप थे. उनकी भी कोई बात नहीं मानी जा रही थी. एक समय हस्तिनापुर की सबसे बड़ी संस्था रहे भीष्म जीवन के अंतिम दिनों में असहाय हो गए थे.

आडवाणी जी भी कई बार पार्टी प्रमुख रहे. भजपा और संघ में उन्हें ‘लौह पुरुष’ कहा जाता था.
2004 से 2009 तक लोकसभा में विपक्ष के नेता रहे आडवाणी भारतीय राजनीति का अहम चेहरा रहे.
आडवाणी जी हर मुसीबत में पार्टी की ढाल बनकर सामने आये. चाहे ताबूत घोटाले में पार्टी फंसी हो या कंधार विमान अपहरण में हुई जग हंसाई, हर जगह आडवाणी जी मोर्चा संभालते नज़र आये.
भारतीय राजनीति में मोदी युग के आरंभ होने के साथ ही आडवाणी जी का भाग्य रथ अस्त होने लगा. राजनीतिक रूप से पार्टी ने उन्हें अप्रासंगिक बना दिया. धीरे-धीरे उनकी बातों को अनसुना किया जाने लगा. ऐसी अटकलें मीडिया में ख़ूब लगीं कि अडवाणी जी नहीं चाहते थे कि मोदी जी प्रधानमंत्री बनें. प्रधानमंत्री मोदी जी ही बने और आडवाणी जी ने उन्हें स्वीकार भी किया.
आख़िरी उम्मीद का टूटना

भीष्म की कोई राजनीतिक महत्वाकांक्षा नहीं थी. भीष्म यदि महत्वकांक्षी भी थे, तो हस्तिनापुर साम्राज्य को अजेय बनाये रखने के लिए. उनका कोई व्यक्तिगत स्वार्थ नहीं था. वे चाहते थे कि उनके राज्य में धर्म का शासन हो, लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हो पाया. हस्तिनापुर को योग्य शासक नहीं मिल पाया, यही बात उन्हें अंतिम समय तक अखरती रही.

आडवाणी जी को मोदी जी से कोई दुराग्रह नहीं था न ही वे उन्हें अकुशल मानते थे. हां! ये बात ज़रुर है कि उनकी भी इच्छा रही होगी कि वे प्रधानमंत्री बनें. कहीं न कहीं उनकी ये उम्मीद अधूरी रह गई.
जिस राजनैतिक विचारधारा के प्रति वे आजीवन समर्पित रहे उसी विचारधारा ने उन्हें राजनीति के पटल पर अप्रासंगिक बना दिया. अब आडवाणी जी के राष्ट्रपति बनने को भी सुप्रीम कोर्ट ने संदेहास्पद कर दिया है.
भले ही महाभारत के भीष्म की कोई राजनीतिक महत्वाकांक्षा नहीं थी, पर भारतीय राजनीति के आधुनिक भीष्म में राजनीतिक महत्वाकांक्षा कूट-कूट के भरी थी जिसके टूटने के दर्द को उनका राजनीतिक समर्पण कभी नहीं भूलने देगा.