पिछले साल आई ‘हिन्दी मीडियम’ ने हिन्दी बनाम English के विषय पर लोगों को सोचने पर मजबूर किया था. फ़िल्म में बख़ूबी दिखाया गया है कि देश में अंग्रेज़ी ज़ुबान नहीं बल्कि एक क्लास (वर्ग) है. ये एक कड़वा सच है, जो बच्चों के भविष्य के प्रति मां-बाप को डराता है. उन्हें लगता है सरकारी स्कूल में बच्चे पढ़ेंगे, तो अंग्रेज़ी नहीं सीख पाएंगे और भविष्य में समाज में आत्मविश्वास से अपनी बात नहीं रख पाएंगे. 

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लिखने का विषय ये नहीं है कि अंग्रेज़ी अच्छी नहीं है, या इस भाषा को नहीं सीखना चाहिए. हर भाषा का अपना महत्व होता है और विभिन्न भाषाओं की जानकारी से अच्छे करियर की संभावनाएं बढ़ जाती हैं. हालांकि भारत में हिन्दी मीडियम के स्कूलों से पढ़कर आए बच्चों के लिए ये एक मुसीबत बन जाती है. अंग्रेज़ी की कम जानकारी स्कूली जीवन में इन बच्चों को महसूस नहीं होती, लेकिन स्कूल के बाद इन छात्रों की चुनौतियां अपेक्षाकृत अंग्रेज़ी माध्यम वाले छात्रों से कहीं ज़्यादा बढ़ जाती हैं.

1. Inferiority Complex और ख़ुद को English मीडियम वालों से कम आंकना 

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ऐसा नहीं है कि हिन्दी मीडियम के छात्रों में प्रतिभा की कोई कमी होती है, लेकिन समाज में हिन्दी मीडियम के छात्रों को हीन भावना से देखा जाता है. इंग्लिश न आने के कारण कई बार बेइज्ज़त भी होना पड़ता है. इससे छात्र ख़ुद को कमतर समझने लगते हैं.

2. ज़्यादातर किताबें English में होती हैं

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हिन्दी मीडियम वालों का काम स्कूल तक तो ठीक-ठाक चल जाता है, लेकिन कॉलेज और उच्च शिक्षा के लिए उन्हें अंग्रेज़ी की शरण में जाना ही पड़ता है. हिंदी मीडियम वाले किसी छात्र को जब पता लगता हैं की कोई कोर्स केवल इंग्लिश में ही कर पाना संभव हैं, तो उसे इंग्लिश लैंग्वेज चुनौती और हिंदी भाषा पनौती लगने लगती हैं. इस संघर्ष में कई बच्चे किसी तरह अपनी नैया पार लगा लेते हैं, लेकिन जिन लोगों का आख़िर तक अंग्रेज़ी में हाथ तंग रहता है, उन्हें करियर में बेहद परेशानी उठानी पड़ती है.

3. English न आने से पर्सनल ग्रोथ में दिक्कतें

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हीन भावना के कारण हिन्दी मीडियम छात्रों में आत्मविश्वास की कमी आती है, इसी कारण ऐसे छात्रों की पर्सनल ग्रोथ उच्च स्तर की नहीं हो पाती क्योंकि उनकी ये कमज़ोरी डर में बदल जाती है. आत्मविश्वास की कमी के कारण कुछ बच्चे इंग्लिश स्पीकिंग Courses के चक्करों में फंस जाते है. 45 दिनों में English सीखने के लालच में हज़ारों रुपये तक बर्बाद करते हैं.

4. किसी भी फ़िल्म फे़स्टिवल, सेमिनार और ऐसे ही इंटेलेक्चुअल प्रोग्राम का हिस्सा बनने से कतराते हैं

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आज भाषाओं में बहनों का रिश्ता न रहकर सास-बहू का रिश्ता हो गया है. एकदम ऐसा ही रिश्ता हिन्दी और इंग्लिश मीडियम के छात्रों के बीच हो गया है. ऐसे छात्र रुचिकर विषय से जुड़े सेमिनार में भी ख़ुद को जाने से रोक देते है. केवल ग्रेजुशन के छात्रों के साथ नहीं, PhD के छात्रों के साथ भी ऐसी दिक्कतें आती है. अधिकत्तर इंटेलेक्चुअल प्रोग्राम, सेमिनार English में ही होते है, ऐसे में ये लोग अपने पसंदीदा सेमिनारों को अटेंड करने से कतराने लगते हैं.

4. जॉब की कम हो जाती है संभावनाएं

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हिन्दी मीडियम छात्रों को सबसे ज़्यादा दिक्कत जॉब के समय आती है. आज ज़्यादातर क्षेत्रों में काम अंग्रेज़ी में ही होता है. इसी वजह से हिंदी भाषी छात्रों को संघर्ष भी ज़्यादा करना पड़ रहा हैं. UPSC की तरह ही सरकारी जॉब में भी अंग्रेज़ी वालों का ही दबदबा रहता है. इसी प्रकार मैनेजमेंट सेक्टर से जुड़ी नौकरियों में भी पहली प्राथमिकता इंग्लिश बोलने वाले लोगों को ही मिलती है.

5. समाज भी करता है जज

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हिन्दी के छात्रों की समस्या केवल स्कूलों, कॉलेजों तक ही सीमित नहीं है. इन छात्रों को समाज में भी दिक्कतें सहनी पड़ती हैं. समाज भी English के आधार पर लोगों को जज करता है. कुछ लोगों को लगता है कि इंग्लिश न आना मतलब कि कुछ नहीं आता. 

एक भाषा के आधार पर किसी की योग्यता पर उंगली उठाना कहां तक उचित है, इसलिए यह प्रश्न उठता है कि इंग्लिश न बोल पाने वाले लोगों को कमतर क्यों समझा जाने लगता है?