‘दुश्मन हम से महज़ 50 गज़ की दूरी पर है,

हमारी तादाद बेहद कम है और हम गोलाबारी से घिरे हैं,
इसके बावजूद मैं एक इंच भी पीछे नहीं हटूंगा,
जब तक हमारे पास आख़िरी गोली और आख़िरी फ़ौजी है.

देशप्रेम से भरे ये शब्द 24 साल के मेजर सोमनाथ शर्मा के थे. शोमनाथ शर्मा वही जांबाज़ थे जिन्हें पहली बार उनकी शहादत के लिए देश के सबसे बड़े सैन्य पुरस्कार ‘परमवीर चक्र’ से सम्मानित किया गया था. उन्हें ये सम्मान मरणोपरांत दिया गया था. 

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26 जनवरी 1950 को ‘गणतंत्र दिवस’ के मौके पर मेजर सोमनाथ शर्मा के पिता मेजर जनरल अमर नाथ शर्मा ने तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद के हाथों बेटे के लिए ‘परमवीर चक्र’ प्राप्त किया था. हालांकि, उनके लिए परमवीर चक्र की घोषणा बेशक़ 1947 में की गई थी, लेकिन वो समय विक्टोरिया क्रॉस का था. 

मेजर जनरल अमर नाथ शर्मा 

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कौन थे मेजर सोमनाथ शर्मा? 

देश के पहले परमवीर चक्र विजेता मेजर सोमनाथ शर्मा का जन्म सन 1923 में हिमाचल प्रदेश के छोटे से गांव डाढ़ के एक सैन्य परिवार में हुआ था. मेजर शर्मा की प्रारंभिक शिक्षा नैनीताल के शेरवुड कॉलेज में हुई थी. कॉलेज के बाद उन्होंने देहरादून के ‘प्रिंस ऑफ़ वेल्स रॉयल मिलिट्री कॉलेज’ में उच्च शिक्षा हासिल की. इसके बाद 22 फ़रवरी 1942 को उन्हें ‘कुमाऊं रेजिमेंट’ में कमीशन मिला.   

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मेजर शर्मा का पूरा परिवार सेना में था 

परमवीर मेजर सोमनाथ शर्मा के पिता मेजर जनरल अमर नाथ शर्मा भी भारतीय सेना के आर्मी मेडिकल कोर में थे. बड़े भाई लेफ़्टिनेंट जनरल सुरेंद्र शर्मा इंजीनियरिंग कोर, छोटे भाई जनरल वीएन शर्मा आर्म्ड कोर, बहन कमल शर्मा व मनोरमा शर्मा ने आर्टीलरी व सिग्नल्स में सेवाएं दे चुकी हैं.   

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मेजर सोमनाथ शर्मा अपनी पहनों से बेहद प्रेम करते थे. लड़ाई पर जाने से पहले उन्होंने अपनी छोटी बहन मनोरमा शर्मा के नाम पर अपनी वसीयत कर दी थी. मेजर शर्मा को चिंता थी कि उनकी बहनें अभी छोटी है इसलिए भविष्य में उन्हें कहीं परेशानी न हो. 

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बाज़ू टूटा था, हौसला नहीं 

26 अक्टूबर, 1947 को जब मेजर सोमनाथ शर्मा की रेजिमेंट को कश्मीर जाने का आदेश मिला. इस दौरान उनके बाएं हाथ की हड्डी टूटी हुई थी, उनकी बांह पर प्लास्टर चढ़ा हुआ था. मेजर शर्मा उस वक़्त ‘कुमाऊं रेजिमेंट’ की चौथी बटालियन की डेल्टा कंपनी के कमांडर थे. हालांकि, इस दौरान उनके साथियों ने उन्हें रोकने की कोशिश की तो जवाब मिला, ‘सैन्य परंपरा के अनुसार जब सिपाही युद्ध में जाता है तो अधिकारी पीछे नहीं रहते हैं’. 

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3 नवंबर, 1947 को मेजर शर्मा कश्मीर के बडग़ांव में कब्ज़े के इरादे से आये पाकिस्तानी सेना के जवानों और कबायलियों से हाथ फ्रैक्चर होने के बावजूद देश के ख़ातिर लड पड़े थे. इस दौरान मेजर शर्मा लगातार 6 घंटे तक ख़ुद भी लाडे और अपने सैनिकों को लडऩे के लिए उत्साहित किया. इस दौरान दुश्मन सेना द्वारा फेंका गया एक हथगोला मेजर शर्मा के पास रखे गोला बारूद के ढेर पर जा गिरा और मेजर शर्मा दुश्मनों से लोहा लेते हुए शहीद हो गए. 

मेजर सोमनाथ शर्मा द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान ‘अराकान कैंपेन’ का हिस्सा भी रहे.

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देश की ख़ातिर मेजर सोमनाथ शर्मा तो शहीद हो गए, लेकिन आज भी उनके पैतृक गांव में उनकी याद में एक ‘चेरीटेबल ट्रस्ट’ चलता है. यहां सप्ताह के चार दिन चिकित्सक फ़्री में सेवाएं देते हैं, जिसका लाभ आस-पास के ग्रामीण लोगों को मिलता है.   

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सैन्य पृष्ठ भूमि और विरासत में मिले वीरता के गुण ही थे कि मेजर शर्मा के साहस के आगे पाकिस्तानी सेना को भी झुकना पड़ा था. मलाल केवल इतना सा है कि सरकारें आज तक उनके पैतृक गांव में मेजर शर्मा के नाम का एक स्मारक तक नहीं बना सकीं.